श्रीमच्छंकराचार्य जी का श्रीकृष्ण प्रेम 4

श्रीमच्छंकराचार्य जी का श्रीकृष्ण प्रेम

ध्यान की विधि

यमुनातटनिकटस्थितवृन्दावनकानने महारम्ये। कल्पद्रुमतलभूमौ चरणं चरणोपरि स्थाप्य।।
तिष्ठन्तं घननीलं स्वतेजसा भासयन्तमिह विश्वम्। पीताम्बरपरिधानं चन्दनकर्पूरलिप्तसर्वांगम्।।
आकर्णपूर्णनेत्रं कुण्डलयुगमण्डितश्रवणम्। मन्दस्मितमुखकमलं सुकौस्तुभोेदारमणिहारम्।।
वलयांगुलीयकाद्यानुज्ज्वलयन्तं स्वलंकारान्। गलविलुलितवनमालं स्वतेजसापास्तकलिकालम्।।
गुन्जारवालिकलितं गुन्जापुन्जान्विते शिरसि। भुन्जानं सहगोपैः कुन्जान्तरवर्तिनं हरिं स्मरत।।
मन्दारपुष्पवासितमन्दानिलसेवितं परानन्दम्। मन्दाकिनीयुतपदं नमत महानन्ददं महापुरुषम्।।
सुरभीकृतदिग्वलयं सुरभिशतैरावृतं सदा परितः। सुरभीतिक्षपणमहासुरभीमं यादवं नमत।।
कन्दर्पकोटिसुभगं वान्छितफलदं दयार्णवं कृष्णम्। त्यक्त्वा कमन्यविषयं नेत्रयुगं द्रष्टुमुत्सहते।।
पुयण्तमामतिसुरसां मनोऽभिरामां हरेः कथां त्यक्त्वा। श्रोतुं श्रवणद्वन्द्वं ग्राम्यं कथमादरं भवति।।
दौर्भाग्यमिन्द्रियाणां कृष्णे विषये हि शाश्वतिके। क्षणिकेषु पापकरणेष्वपि सज्जन्ते यदन्यविषयेषु।।[1]


‘यमुनातट के निकट स्थित वृन्दावन के अति रमणीय किसी कानन में, कल्पवृक्ष की तलभूमि में चरण पर चरण रखकर बैठे हुए मेघश्याम, जो अपने तेज से विश्व को प्रकाशित कर रहे हैं, पीताम्बर धारण किये हुए हैं, चन्दनकर्पूर से जिनका शरीर लिप्त हो रहा है, जिनके नेत्र कानों तक पहुँचे हुए हैं, जिन्होंने कानों में कुण्डल धारण किये हैं, जिनका मुखकमल मन्द हास से युक्त है, जो कौस्तुभमणि से युक्त सुन्दर हार पहने हुए हैं, जो अपने प्रकाश से कंकण, अँगूठी आदि अलंकारों को शोभित कर रहे हैं, वनमाला जिनके गले में लटक रही है, अपने तेज से जिन्होंने कलिकाल का निरास कर दिया, गुन्जापुन्ज से युक्त सिर पर गुन्जा और भ्रमरों के शब्द हो रहे हैं, ऐसे किसी कुन्ज के अंदर बैठकर गोपों के साथ भोजन करते हुए श्रीहरि का स्मरण करो। जो कल्पवृक्ष के पुष्पों की गन्ध से युक्त मन्द पवन से सेवित हैं, गंगा जी जिनके चरण कमल में स्थित हैं, जो महान आनन्द के दाता हैं, ऐसे परमानन्दस्वरूप महापुरुष को नमस्कार करो। दसों दिशाओं को जिन्होंने सुगन्धित कर दिया है, सुरभि-सदृश सैकड़ों गायों ने जिनको चारों ओर से घेर रखा है, देवताओं के भय को नाश करने के लिये जो भयानक महासुररूप धारण करने वाले हैं, उन यादव को नमस्कार करो। जो करोड़ों कामदेवों से भी सुन्दर हैं, जो वान्छित फल के दाता हैं, ऐसे दयासमुद्र श्रीकृष्ण को छोड़कर ये नेत्रयुगल और किस विषय के दर्शन का उत्साह करें। अति पवित्र, अति सुन्दर, रसवती, मनोरम श्रीकृष्ण-कथा को छोड़कर ये कर्णयुगल संसारी पुरुषों की चर्चा सुनने के लिये कैसे आदर करें। सदा विद्यमान श्रीकृष्णरूपी विषय के होते हुए भी पाप के साधन क्षणिक अन्य विषयों में प्रीति करना इन्द्रियों का दुर्भाग्य ही है।।184-193।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 184-193

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