श्रीमच्छंकराचार्य जी का श्रीकृष्ण प्रेम 5

श्रीमच्छंकराचार्य जी का श्रीकृष्ण प्रेम

सगुण-निर्गुण की एकता

श्रुतिभिर्महापुराणैः सगुणगुणातीतयोरैक्यम्। यत्प्रोक्तं गूढतया तदहं वक्ष्येऽतिविशदार्थम्।।
भूतेष्वन्तर्यामी ज्ञानमयः सच्चिदानन्दः। प्रकृतेः परः परात्मा यदुकुलतिलकः स एवायम्।।
ननु सगुणो दृश्यतनुस्तथैकदेशाधिवासश्च। स कथं भवेत्परात्मा प्राकृतवद्रागरोषयुतः।।
इतरे दृश्यपदार्था लक्ष्यन्तेऽनेन चक्षुषा सर्वे। भगवाननया दृष्टया न लक्ष्यते ज्ञानदृग्गम्यः।।
यदिश्वरूपदर्शनसमये पार्थाय दत्तवान् भगवान्। दिव्यं चक्षुस्तस्माददृश्यता युज्यते नृहरौ।।
साक्षाद्यथैकदेशे वर्तुलमुपलभ्यते खेर्बिम्बम्। विश्वं प्रकाशयति तत्सर्वैः सर्वत्र दृश्यते युगपत्।।
यद्यपि साकारोऽयं तथैकदेशी विभाति यदुनाथः। सर्वगतः सर्वात्मा तथाप्ययं सच्चिदानन्दः।।
एको भगवान् रेमे युगपद्गोपीष्वनेकासु। अथवा विदेहजनकश्रुतदेवभूदेवयोर्हरिर्युगपत्।।
अथवा कृष्णाकारां स्वचमूं दुर्योधनोऽपश्यत्। तस्माद्वयापक आत्मा भगवान् हरिरीश्वः कृष्णः।।
वक्षसि यदा जघान श्रीवत्सः श्रीपतेः स किं देष्यः। भक्तानामसुराणामन्येषां वा फलं सदृशम्।।
तस्मान्न कोऽपि शत्रुर्नो मित्रं नाप्युदासीनः। नृहरिः सन्मार्गस्थः सफलः शाखीव यदुनाथः।।
लोहशलाकानिवहैः स्पर्शाश्मनि भिद्यमानेऽपि। स्वर्णत्वमेति लौहं द्वेषादपि विद्विषां तथा प्राप्तिः।।[1]

श्रुतियों और महापुराणों ने जो सगुण-निर्गुण की एकता गुप्तरूप से कही है मैं उसे स्पष्ट करके बतलाऊँगा। ज्ञानस्वरूप सच्चिदानन्द प्रकृति से परे परमात्मा जो सर्वभूतों का अन्तर्यामी है, यह यदुकुलतिलक (श्रीकृष्ण) वही है। (यदि ऐसा कहा जाय कि) यह कृष्ण तो सगुण है, इसका शरीर दृश्य है, एक स्थान में रहने वाला है और साधारण पुरुषों की तरह राग-द्वेष से युक्त है, यह परमात्मा कैसे हो सकता है? अन्य दृश्य पदार्थ इस नेत्र से पहचाने जाते हैं, भगवान इस नेत्र से नहीं पहचाना जाता यह ज्ञानदृष्टि का विषय है। विश्वरूप दर्शन के समय भगवान ने अर्जुन को दिव्यचक्षु दिया था, इसलिये नृहरि में अदृश्यता युक्त ही है। गोलाकार सूर्य का मण्डल साक्षात एकदेश में देखा जाता है, पर वह समस्त विश्व का प्रकाश करता है और सब देशों के निवासी सब पुरुष एक ही काल में उसे अपने सन्मुख देखते हैं। यद्यपि साकार यदुनाथ एकदेशी नजर आता है, तथापि यह सर्वव्यापक सर्वात्मा सच्चिदानन्द ही है। एक ही भगवान ने एक ही काल में अनेक गोपियों में रमण किया अथवा विदेह जनक और श्रुतदेव ब्राह्मण के घर में एक ही काल में हरि ने प्रवेश किया अथवा दुर्योधन ने अपनी समस्त सेना को कृष्णाकार देखा, इसलिये कृष्ण व्यापक आत्मा भगवान हरि ईश्वर ही है। वक्षःस्थल का आघात श्रीवत्स क्या हरि का द्वेष्य है। भक्तों को तथा अन्य असुरों को फल सदृश ही मिला। इसलिये कोई भी उसका शत्रु, मित्र या उदासीन नहीं है, नृहरि यदुनाथ शुभ मार्ग में स्थित फले हुए वृक्ष के सदृश है। लौहशलाकाओं से पारस के तोड़ने पर भी वह लोहा (जिसकी शलाकाएँ बनी होती हैं) सोना हो जाता है, उसी प्रकार द्वेष करने से भी शत्रुओं को उसकी प्राप्ति हुई ।।194-205।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 194-205

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