श्रीमच्छंकराचार्य जी का श्रीकृष्ण प्रेम 3

श्रीमच्छंकराचार्य जी का श्रीकृष्ण प्रेम


प्रमितयदृच्छा लाभे सन्तुष्टिर्दारपुत्रादौ। ममताशून्यत्वमतो निरहंकारत्वमक्रोधः।।
मृदुभाषिता प्रसादो निजनिन्दायां स्तुतौ समता। सुखदुःखशीतोष्णद्वन्द्वसहिष्णुत्वमापदो न भयम्।।
निद्राहारविहारेष्वनादरः संगराहित्यम्। वचने चानवकाशः कृष्णस्मरणेन शाश्वती शान्तिः।।
केनापि गीयमाने हरिगीते वेणुनादे वा। आनन्दाविर्भावो युगपत्स्याद्धष्टसात्त्विकोद्रेकः।।
तस्मिन्ननुभवति मनः प्रगृह्यमाणं परमात्मसुखम्। स्थिरतां याते तस्मिन् याति मदोन्मत्तदन्तिदशाम्।।
जन्तुषु भगवद्भावं भगवति भूतानि पश्यति क्रमशः। एतादृशी दशा चेत्तदैव हरिदासवर्यः स्यात्।।[1]


थोड़े से यदृच्छा लाभ में संतोष, स्त्री-पुत्रादि में ममता का अभाव, निरहंकारता, अक्रोध, मृदुभाषण, प्रसन्नता, अपनी निन्दा और स्तुति में समभाव, सुख-दुःख, शीत-उष्णादि द्वन्द्वों में सहनशीलता, विपत्ति में निर्भयता, निद्रा-आहार-विहार आदि तें अनादर, आसक्तिहीनता, व्यर्थ वचन बोलने में अनवकाश (समय न मिलना), श्रीकृष्ण के स्मरण से पूर्ण शान्ति, किसी पुरुष ने श्रीहरि का गीत गाया हो या मुरली बजायी हो तो उसे सुनते ही तत्क्षण आनन्द का आविर्भाव और सात्त्विक हर्ष का उल्लास। ऐसे अनुभव से मन जब परमात्म-सुख को ग्रहण करके स्थिर हो जाता है, तब (प्रेम से) उसकी दशा मदमत्त गजराज की-सी हो जाती है, वह सब जीवों में भगवान के भाव को और क्रम से भगवान में सब जीवों को देखता है, ऐसी दशा हो जाने पर ही वह श्रेष्ठ हरिदास होता है।।178-183।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 178-183

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