श्रीमच्छंकराचार्य जी का श्रीकृष्ण प्रेम 6

श्रीमच्छंकराचार्य जी का श्रीकृष्ण प्रेम


नन्वात्मनः सकाशादृत्पन्ना जीवसन्ततिश्चेयम्। जगतः प्रियतर आत्मा तत्प्रकृते नैव सम्भवति।।
वत्साहरणावसरे पृथग्वयोरूपवासनाभूषान्। हरिरजमोहं कर्तुं सवत्सगोपान् विनिर्ममे स्वसमात्।।
अग्रेर्यथा स्फुलिंगाः क्षुद्रास्तु व्युच्चरन्तीति। श्रुत्यर्थं। श्रुत्यर्थं दर्शयितुं स्वतनोरतनोत्स जीवसन्दोहम्।।
यमुनातीरनिकुन्जे कदाचिदपि वत्सकांश्च चारयति। कृष्णे तथार्यगोपेषु च वरगोष्ठेषु चारयत्स्वारात्।।[1]

यदि कहा जाय कि आत्मा से जीवसमूहों की उत्पत्ति हुई है, सारे जगत को अपना आत्मा अत्यन्त प्रिय है तो यह बात कृष्ण में नहीं घटती। वत्सहरण के समय ब्रह्मा को मोहित करने के लिये पृथक-पृथक अवस्था, रूप, वस्त्र और भूषणों वाले वत्स और गोप कृष्ण ने अपने ही से बनाये थे। अग्नि से जैसे छोटे-छोटे चिंगारे निकलते हैं, वैसे ही परमात्मा से सब जीव निकलते हैं। इस श्रुति का अर्थ दिखलाने के लिये कृष्ण ने अपने ही शरीर से तो जीवों का समूह रचा था। यमुना के तीर पर कुन्ज में कृष्ण बछड़े चरा रहे थे और दूर गोष्ठों में वृद्ध गोप गौवों को चरा रहे थे।।206-209।।


वत्सं निरीक्ष्य दूराद्गावः स्नेहेन सम्भ्रान्ताः। तदभिुमुखं धावन्त्यः प्रययुर्गोपैश्च दुर्वाराः।।
प्रस्त्रवभरेण भूयः स्त्रुस्तनाः प्राप्यपूर्ववद्वत्सान्। पृथुरसनया लिहन्त्यस्तर्णकवत्यः प्रपाययन्प्रमुदा।।
गोपा अपि निजबालान्जगृहुर्मूर्धानमाघ्राय। इत्थमलौकिकलाभस्तेषां तत्र क्षणं ववृधे।।
गोपा वत्साश्चान्ये पूर्व कृष्णात्मका ह्यभवन्। तेनात्मनः प्रियत्वं दर्शितमेतेषु कृष्णेन।।
प्रेयः पुत्राद्वित्तात्प्रेयोऽन्यस्माच्च सर्वस्मात्। अन्तरतरं यदात्मेत्युपनिषदः सत्यताभिहिता।।[2]

दूर से वत्सों को देख, स्नेहविवश होकर गौएँ भागकर उनके पास आयीं, गोप हटा न सके। दूध के भार से स्तन बहने लगे, पहले वत्सों के पास जाकर लम्बी जीभों से चाटती हुई हाल के ब्याने-बच्चे वाली गौओं ने भी पहले की तरह प्रेम से वत्सों को दूध पिलाया। गोपों ने भी मुख चूमते हुए अपने-अपने बालकों को गोद में ले लिया। इस प्रकार उस क्षण में उनको अलौकिक आनन्द प्राप्त हुआ। वे सब बालक और वत्स कृष्णरूप ही तो थे, इसलिये कृष्ण ने इनमें अपनी प्रियतरता दिखा दी। यह अन्तरतर आत्मा पुत्र से, धन से और सारे जगत से अति प्रिय है। इस उपनिषद की सत्यता कृष्ण ने बतला दी।।210-214।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 206-209
  2. 210-214

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