श्रीमच्छंकराचार्य जी का श्रीकृष्ण प्रेम 7

श्रीमच्छंकराचार्य जी का श्रीकृष्ण प्रेम


नित्यानन्दसुधानिधेरधिगतः सन्नीलमेघः सतामौत्कण्ठयप्रबलप्रभन्जनभरैराकर्षितो वर्षति।
विज्ञानामृतमद्भुतं निजवचो धाराभिरारादिदं चेतश्वातक चेन्न वान्छति मृषा क्रान्तोऽसि सुप्तोऽसि किम्।।
चेतश्चन्चलतां विहाय पुरतः संधाय कोटिद्वयं तत्रैकत्र निधेहि सर्वविषयानन्यत्र च श्रीपतिम्।
विश्रान्तिर्हितमप्यहो क्र नु तयोर्मध्ये तदालोच्यतां युक्त्या वानुभवेन यत्र परमानन्दश्च तत्सेव्यताम्।।

नित्यानन्दरूपी अमृत के समुद्र से निकलता हुआ सत्पुरुषों की उत्कण्ठारूपी प्रबल वायु के वेग से उड़ाया हुआ नीलमेघ तेरे समीप ही अपने वचनरूपी धाराओं से अद्भुत ज्ञानरूपी अमृत (श्रीगीता) की वर्षा कर रहा है। रे चित्त चातक! क्यों नहीं पीता? क्या तुझे किसी ने पकड़ लिया है या तू सोया हुआ है? रे चित्त! चंचलता को त्यागकर अपने सामने तराजू के दोनों पलड़े रख और विचारकर कि दोनों के बीच में विश्राम और हित किसमें है? युक्ति और अनुभव से जिसमें परमानन्द मिले, उसी का सेवन कर!


पुत्रान्पौत्रमथ स्त्रियोऽन्ययुवतीर्वित्तान्यथोऽन्यद्धनं भोज्यादिष्वपि तारतम्यवशतो नालं समुत्कण्ठया।
नैतादृग्यदुनाय के समुदिते चेतस्यनन्ते विभौ सान्द्रानन्दसुधार्णवे विहरति स्वैरं यतो निर्भयम्।।
काम्योपासनयार्थयन्त्यनुदिनं किञ्चित्फलं स्वेप्सितं किञ्चित्स्वर्गमथापवर्गमपरैर्योगादियज्ञादिभिः।
अस्माकं यदुनन्दनाङ्घ्रियुगलध्यानावधानार्थिनां किं लोकेन दमेन किं नृपतिना स्वर्गापवगैंश्च किम्।।

पुत्र, पौत्र, स्त्रियाँ, अन्य युवतियाँ, धन, अन्य धनभोज्यादि पदार्थों में न्यूनाधिक भाव होने से भी कभी भी इच्छा शान्त नहीं होती। अनन्त घनानन्दामृतसमुद्र विभु यदुनायक कृष्ण जब चित्त में प्रकट होकर इच्छापर्वूक विहार करता है, तब यह बात नहीं रहती[1] और चित्त निर्भय हो जाता है। कुछ लोग प्रतिदिन सकाम उपासना से मनोवान्छित फल की प्रार्थना करते हैं। दूसरे कुछ लोग यज्ञादि से स्वर्ग और योगादि से मुक्ति की प्रार्थना करते हैं, हमें तो यदुनन्दन के चरणयुगल के ध्यान में सावधान रहने की इच्छा है। हमें लोक से, दम से, राजा से, स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) से क्या प्रयोजन!

ब्रह्मलीन पूज्यपाद श्रीअच्युतमुनिजी महाराज[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इच्छा शान्त हो जाती है
  2. पूर्वकाल में अच्युतमुनिजी एक उच्चकोटि के विरक्त संत थे, जो काशी में गंगातट पर निवास करते थे। इनके परम भक्त श्रीगौरीशंकरजी गोइनकाने ‘अच्युत-ग्रन्थमाला’ के नाम से विभिन्न महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन भी कराया था।

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