श्रीनारायणीयम्
एकोननवतितमदशकम्
वरदान प्राप्त करके वृकासुर उसी प्रकार शिव जी के पीछे पड़ गया, जैसे बन्धन से मुक्त हुआ सिंह मुक्त करने वाले पर ही आक्रमण कर बैठता है। तब महादेव जी उस दैत्य से भयभीत होकर पीछे की ओर देखते हुए प्रत्येक दिशा में भागते फिरे, परंतु सभी लोगों ने उन्हें देखकर चुप्पी साध ली, किसी ने उनकी रक्षा नहीं की। तत्पश्चात् वे आपके वैकुण्ठधाम की ओर ऊँचे उठने लगे। उन्हें दूर से ही आते देखकर आप आगे बढ़ आये और सुन्दर ब्रह्मचारी का वेष धारण करके उस दानव के मार्ग में खड़े होकर उससे बोले॥5॥
'शकुनि-नन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। इस समय तुम उस पिशाच की बात मानकर क्यों भटक रहे हो? यदि तुम्हें मेरे कथन में संदेह हो तो तुम अपने ही मस्तक पर हाथ रखकर उसकी परीक्षा क्यों नहीं कर लेते?' इस प्रकार आपके वचनों से मोहित हुआ वृकासुर सिर पर हाथ रखते ही छिन्नमूल वृक्ष की तरह धराशायी हो गया। (इससे ऐसा प्रतीत होता है कि) परमेश्वर शिव की उपासना करने वाले का भी मूर्खता के कारण इस प्रकार नाश हो जाता है। उस दिन आप ही शिव जी के भी आश्रय हुए॥6॥ |
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