श्रीनारायणीयम्
सप्तमदशकम्
हिरण्यगर्भ की उत्पत्ति, तपश्चरण, वैकुण्ठस्वरूप, भगवत्स्वरूप साक्षात्कार तथा भगवदनुग्रह का वर्णन
देव! इस प्रकार आप पहले चौदह भुवनों के रूप में प्रकट हुए। तदनन्तर उस जगत के ऊपर सत्यलोक में स्वयं ही विधातारूप से आविर्भूत हुए, जिन्हें शास्त्रज्ञ लोग संपूर्ण त्रिलोकी के जीवस्वरूप हिरण्यगर्भ नाम से अभिहित करते हैं तथा जो प्रवृद्ध रजोगुण के विकार से बढ़ी हुई नाना भूतों की सिसृक्षा (सृष्टि-रचना की इच्छा)- में रस लेने लगे।।1।।
जगदीश्वर! वही ब्रह्मा जब चराचर जीवों की विविध सृष्टि रचना में दत्तचित्त होकर तद्विषयक ज्ञान की खोज करने लगे, परंतु उन्हें विश्व-सृष्टिविषयक ज्ञान का आभास नहीं प्राप्त हुआ, तब वे चिन्ताकुल होकर चुपचाप बैठ गये। उस समय आपने इन्हें तपस्या के लिए प्रेरित करते हुए ‘तप तप’ यों श्रोत्र को आनन्द देने वाली आकाशवाणी सुनायी।।2।। |
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