श्रीनारायणीयम्
तृतीयदशकम्
भक्तस्वरूप-वर्णन तथा भक्ति-प्रार्थना
वरद्! जो भक्त आपके नामों का उच्चस्वर से कीर्तन, स्वरूप का स्मरण तथा गुणानुवाद का परस्पर कथन करते हुए आनन्दातिशय-सागर में सदा निमग्न करते रहते हैं और विरक्त होकर विचरण करते हुए आप में ही रमण करते हैं, केवल उन्हीं भक्तों को मैं परम भाग्यशाली मानता हूँ; क्योकि समस्त ईप्सित पदार्थ उन्हें हस्तगत हो गये हैं ।।1।।
खेद है कि व्याधि आदि से संतप्त हुआ यह चित्त आपके चरण कमलों की सेवा के रस-सिन्धु में भी आसक्त नहीं हो रहा है। अतः विष्णो! आप ही मुझ पर दया कीजिए। अब मैं आपके पादपद्मों के स्मरण का रसिक होकर आपके नामसमूहों का बारंबार कीर्तन करता हुआ किसी निर्जन स्थान में निवास करूँगा ।।2।। |
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