श्रीनारायणीयम्
अष्टाविंशतितमदशकम्
अमृत-मन्थन
तदनन्तर कालकूट नाम का विष, जो तरल अनल ही था, सबके सामने समुद्र से बाहर निकला। तब देवों के स्तुतिवाद की प्रसन्नता से वशीभूत हुए शिव जी आपका प्रिय करने के लिए उसे पी गये।।1।।
त्रिधामन्! देवासुरों के मथते रहने पर समुद्र से सुरभि प्रादुर्भूत हुई, उसे आपने ऋषियों को दे डाला। तत्पश्चात् अश्वरत्न, [ उच्चैःश्रवा निकला, जिसे बलि ने ने लिया।] फिर, गजरत्न ऐरावत, कल्पतरु और अप्सराएँ प्रकट हुईं, उन्हें आपने देवताओं को दे दिया।।2।।
जगदीश! उसी समय जिसके आप ही परम पुरुष हैं, ऐसी शोभामूर्ति लक्ष्मी देवी निकलीं। उन अमला कमला को देखकर सारा-का-सारा लोक चञ्चल हो उठा और उन्हें पाने की इच्छा करने लगा।।3।। |
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