श्रीनारायणीयम्
एकादशस्कन्धपरिच्छेदः
एकनवतितमदशकम्
निःश्रेयस-प्रदायिनी भक्ति का स्वरूप वर्णन
समस्त प्राणियों के आत्मस्वरूप देवदेवेश्वर श्रीकृष्ण! जिसकी दृष्टि मिथ्या अर्थ- शरीरादि में आबद्ध है, उस जनन-मरणधर्मा आर्त प्राणी के लिए आपके चरणों की उपासना ही सर्वश्रेष्ठ अभयस्थान है- ऐसी मेरी मान्यता है; क्योंकि उससे भय का सर्वथा ही मूलोच्छेद हो जाता है। आपका चरणोपासक जगत् में आपके द्वारा विहित भागवत-धर्म का आश्रय लेकर मोहमार्ग में आँख मूँदकर दौड़ता हुआ भी कहीं लड़खड़ाता या गिरता नहीं है।।1।।
भूमन्! आपके बल से प्रेरित हुआ मैं इस जन्म में शरीर, वचन, मन और इन्द्रियों से बारंबार जो कुछ भी कर्म करता हूँ, व सारा का सारा आप परमात्मा में समर्पित कर देता हूँ; क्योंकि इस जगत् में जिसके मन, कर्म, वचन, इंद्रिय, इन्द्रियों के विषय तथा प्राण आपमें निहित हैं, वह जन्म से चाण्डाल होते हुए भी सारे विश्व को पावन बना देता है, किंतु आपके चरणों से विमुख मन वाला कुलीन ब्राह्मण ऐसा नहीं कर सकता (वह तो विश्व को कौन कहे, अपने को भी शुद्ध करने में असमर्थ है)।।2।। |
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