श्रीनारायणीयम्
द्विनवतितमदशकम्
कर्ममिश्रित भक्ति के स्वरूप का वर्णन
वेदों ने समस्त कर्मों का नैष्कर्म्य के उद्देश्य से ही वर्णन किया है- ऐसा जानकर मैंने उन कर्मों को आपके ही अर्पित कर दिया और जो कर्मनिवृत्ति साध्य हैं, उनका अनुष्ठान करने लगा। ईश! अब वेदनिषिद्ध किसी भी कर्म में मेरे मन, कर्म (शरीर), वचन की प्रवृत्ति न हो। यदि संयोगवश मुझे किसी निषिद्ध कर्म की प्राप्ति हो तो उसे भी मैं चित्प्रकाश स्वरूप आपको ही अर्पित करता हूँ।।1।।
अयि विभो! सकाम अनुष्ठान् से भिन्न जो दूसरा आपका भजनमय कर्मयोग है, उस मार्ग में मैं पत्थर, मिट्टी अथवा हृदय कहीं भी अपने इष्टदेव की शुद्ध सत्त्वमयी मनोहर मूर्ति की कल्पना करके भक्ति भावपूर्वक यथाशक्ति सम्पादित पुष्प-गंध-नैवेद्य आदि सामग्रियों द्वारा नित्य उत्तम पूजा का अनुष्ठान करता हुआ आपके कृपा प्रसाद का भागी बनूँ।।2।। |
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