श्रीनारायणीयम्
सप्ताशीतितमदशकम्
सुदामा-चरित
कुचेल (सुदामा) नाम के एक निर्धन ब्राह्मण थे। वे महर्षि सांदीपनि के आश्रम में आपके साथ ही ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक विद्याध्ययन कर रहे थे, अतः आपके सहपाठी थे। आपमें अनन्य अनुराग होने के कारण उनकी धनादि की स्पृहा नष्ट हो गयी थी। वे जितेन्द्रिय द्विज गृहास्थाश्रम स्वीकार करके कालक्षेप कर रहे थे।।1।।
यद्यपि उनकी पत्नी भी उन्हीं के सदृश शील-स्वभावशाली थी, तथापि उनके समान उसका अपने चित्त पर अधिकार नहीं था अर्थात् वह धनादि से निःस्पृह नहीं थी। अतः एक दिन उसने अपने पतिदेव से कहा- ‘भला, जब लक्ष्मीपति ही आपके सखा हैं, तब जीविका-निर्वाह के लिए आप उनकी सेवा में क्यों नहीं जाते?’।।2।।
तब क्षुधा-पीड़ित पत्नी के यों कहने पर सुदामा उन्मत्त बना देने वाले धन की निन्दा करते हुए भी आपके दर्शन की कामना से दुपट्टे के छोर से उपहार स्वरूप कुछ तण्डुल (या चिउड़े) बाँधकर द्वारका को चल पड़े।।3।। |
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