श्रीनारायणीयम्
एकसप्ततितमदशकम्
जो संपूर्ण प्रयासों में कभी असलफल नहीं होता था, वह केशी नामक दैत्य भोजराज कंस का प्रिय बन्धु था। आप सिंधुजा (समुद्रजन्मा लक्ष्मी)- को ही प्राप्त होने वाले हैं- मानो यही सोचकर वह सिन्धुजवाजी (सिंघी घोड़े) का रूप धारण करके आपके पास आया था।।1।।
यद्यपि वह गन्धर्वता (देवयोनिविशेष या अश्वयोनि)- को प्राप्त हुआ था, तथापि अपनी कठोर गर्जना से संपूर्ण लोकों को उद्विग्न कर डालता था। उसने जब तक आपको देखा नहीं, तभी तक गोपों के बाड़े को रौंद डाला। फिर वह पापी आप पर भी टूट पड़ा।।2।।
आप तार्क्ष्य (गरुड़) की पीठ पर पैर रखते हैं, इसलिए इस तार्क्ष्य (घोड़े)- ने आपके वक्षः स्थल पर पैर से आघात किया। महर्षि भृगु ने आपकी छाती पर लात मारी थी, इस कथा को सुनकर उसने भी मोहवश मानो ऐसा समझ लिया कि मैं भी यह काम कर सकता हूँ।।3।। |
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