श्रीनारायणीयम्
द्विचत्वारिंशत्तमदशकम्
शकटासुर-उद्धार
प्रभो! एक बार आपकी वर्ष-गाँठ के दिन ब्रजेश्वरी यशोदा ने अपने जाति-भाइयों, गोपांगनाओं तथा ब्राह्मणों को भोजनार्थ आमंत्रित कर रखा था, जिससे वे आपको एक महान शकट के समीप सुलाकर रसोई आदि के कार्य में लग गयीं।।1।।
इतने में ही उन्हें आपके समीप से आपकी रक्षा के लिए नियुक्त किए गये बालकों के भययुक्त आक्रन्दन के उच्च स्वर से संयुक्त फटती हुई लकड़ी का चटचट शब्द सुनायी पड़ा।।2।।
तब उस शब्द के सुनने से सम्भ्रान्त होने के कारण दौड़ने के परिश्रम से जिनके स्थूल स्तन हिल रहे थे, उन व्रजांगनाओं से घर से बाहर जाकर आपको चारों ओर से गिरती हुई भारी-भारी लकड़ियों के बीच विद्यमान देखा।।3।। |
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