श्रीनारायणीयम्
सप्ताशीतितमदशकम्
इस प्रकार भक्तों के बीच में मित्र भक्त आपके द्वारा प्रीतिपूर्वक सम्मानित हुए सुदामा अतिशय आनन्दपूर्वक एक रात द्वारकापुरी में रहे। परंतु खेद है, दूसरे दिन प्रातःकाल बिना कुछ धन प्राप्त किए ही बिदा हुए। भगवन्! आपका अनुग्रह भी विचित्र रूपों वाला है अर्थात् आप किस रूप में किस पर कृपा करते हैं- यह कहा नहीं जा सकता।।7।।
मार्ग में सुदामा कभी यह सोचते थे कि यदि मैं याचना करता तो अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले श्रीकृष्ण मुझे धन अवश्य देते। (परंतु मैंने याचना नहीं की, अतः उन्होंने कुछ दिया नहीं।) अब घर चलकर पत्नी से क्या कहूँगा। पुनः उसी क्षण उनकी बुद्धि आपके सम्भाषण, लीला और मन्द मुस्कान के आनन्द में निमग्न हो जाती। इस प्रकार क्रमशः आगे बढ़ते हुए उन्हें अपना भवन दिखायी पड़ा, जो मणियों की प्रभा से जगमगा रहा था।।8।।
उसे देखकर सुदामा को क्षणभर भ्रम हो गया कि कहीं मैं मार्ग तो नहीं भूल गया? पुनः घर के भीतर प्रवेश करके उन्होंने अपनी पत्नी को देखा, जो मणि तथा स्वर्णनिर्मित आभूषणों से विभूषित थी और बहुत सी सखियाँ उसे घेरे हुए थीं। तब सुदामा को आपकी अत्यंत अद्भुत करुणा का ज्ञान हो आया।।9।।
उस रत्ननिर्मित महल में निवास करते हुए भी सुदामा की भक्ति क्रमशः बढ़ती ही गयी, जिससे अंत में वे मोक्ष को प्राप्त हो गये। मरुत्पुराधीश! इस प्रकार भक्तों का मनोरथ पूर्ण करने वाले आप मेरे रोगों को हर लीजिए।।10।।
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