महात्मा तण्डि द्वारा महादेव की स्तुति और प्रार्थना

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 16 में महात्मा तण्डि द्वारा महादेव की स्तुति और प्रार्थना का वर्णन हुआ है।[1]

उपमन्यु-कृष्ण संवाद

उपमन्यु कहते हैं- तात! सत्ययुग में तण्डि नाम से विख्यात एक ऋषि थे जिन्होंने भक्तिभाव से ध्यान के द्वारा दस हजार वर्षों तक महादेव जी की आराधना की थी। उन्हें जो फल प्राप्त हुआ था, उसे बता रहा हूं, सुनिये! उन्होंने महादेव जी का दर्शन किया और स्तोत्रों द्वारा उन प्रभु की स्तुति की। इस तरह तण्डि ने तपस्या में संलग्न होकर अविनाशि परमात्मा महामना शिवका चिन्तन करके अत्यन्त विस्मित हो इस प्रकार कहा था- ‘साख्यशास्त्र के विद्वान पर, प्रधान, पुरुष, अधिष्ठाता और ईश्वर कहकर सदा जिनका गुणगान करते हैं, योगीजन जिनके चिन्तन में लगे रहते हैं, विद्वान पुरुष जिन्हें जगत की उत्पति और विनाश का कारण समझते हैं, देवताओं, असुरों और मुनियों में भी जिनसे श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है, उन अजन्मा, अनादि, अनन्त, अनघ और अत्यन्त सुखी, प्रभावशाली ईश्वर महादेव जी की मैं शरण लेता हूँ’। इतना कहते ही तण्डि ने उन तपोनिधि, अविकारी, अनुपम, अचिन्त्य, शाश्वत, धु्रव, निष्कल, सकल, निर्गुण एवं सगुण ब्रह्मा का दर्शन प्राप्त किया, जो योगियों के परमानन्द, अविनाशी एवं मोक्षस्वरूप हैं। वे ही मनु, इन्द्र, अग्नि, मरूद्गण, सम्पूर्ण विश्व तथा ब्रह्मा जी की भी गति हैं। मन और इन्द्रियों के द्वारा उनका ग्रहण नहीं हो सकता। वे अग्राहय, अचल, शुद्ध, बुद्धि के द्वारा अनुभव करने योग्य तथा मनोमय हैं। उनका ज्ञान होन अत्यन्त कठिन है। वे अप्रमेय हैं। जिन्होंने अपने अन्तःकरण को पवित्र एवं वशीभूत नहीं किया है, उनके लिये वे सर्वथा दुर्लभ हैं। वे ही सम्पूर्ण जगत के कारण हैं। अज्ञानमय अन्धकार से अत्यन्त परे हैं। जो देवता अपने को प्राणवान-जीवस्वरूप बनाकर उसमें मनोमय ज्योति बनकर स्थित हुए थे, उन्हीं के दर्शन की अभिलाषा से तण्डि मुनि बहुत वर्षों तक उग्र तपस्या में लगे रहे। जब उनका दर्शन प्राप्त कर लिया तब उन मुनिश्वर ने जगदीश्वर शिव की इस प्रकार स्तुति की। तण्डि ने कहा- सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर! आप पवित्रों मे भी परम पवित्र तथा गतिशील प्राणियो की उत्तम गति हैं। तेजों में अत्यन्त उग्र तेज और तपस्याओं में उत्कृष्ट तप हैं। गन्धर्वराज विश्वावसु, दैत्यराज हिरण्याक्ष और देवराज इन्द्र भी आपकी वन्दना करते हैं। सबको महान कल्याण प्रदान करने वाले प्रभो! आप परम सत्य हैं। आपको नमस्कार है। विभो! जो जन्म-मरण से भयभीत हो संसार बन्धन से मुक्त होने के लिये प्रयत्न करते हैं, उन यतियों को निर्वाण (मोक्ष) प्रदान करने वाले आप ही हैं। आप ही सहस्रों किरणों वाले सूर्य होकर तप रहे हैं। सुख के आश्रयरूप महेश्वर! आपको नमस्कार है। ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, विश्वदेव तथा महर्षि भी आपको यथार्थरूप से नहीं जानते है। फिर हम कैसे जान सकते हैं। आपसे ही सबकी उत्पत्ति होती है तथा आपमें ही यह सारा जगत प्रतिष्ठित है। काल, पुरुष और ब्रह्मा- इन तीन नामों द्वारा आप ही प्रतिपादित होते हैं। पुराणवेत्ता देवर्षियों ने आपके ये तीन रूप बताये हैं। अधिपौरूष, अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैवता, अधिलोक, अधिविज्ञान और अधियज्ञ आप ही हैं। आप देवताओं के लिये भी दुजेय हैं। विद्वान पुरुष आपको अपने ही शरीर में स्थित अन्तर्यामी आत्मा के रूप मे जानकार संसार-बन्धन से मुक्त हो रोग-शोक से रहित परमभाव को प्राप्त होते हैं। प्रभो! यदि आप स्वयं ही कृपा करके जीवका उद्धार करना न चाहें तो उसके बारंबार जन्म और मृत्यु होते रहते हैं। आप ही स्वर्ग और मोक्ष के द्वार हैं। आप ही उनकी प्राप्ति में बाधा डालने वाले हैं तथा आप ही ये दोनों वस्तुएं प्रदान करते हैं।[1]

तण्डि द्वारा शिव की अराधना का वर्णन

आप ही स्वर्ग और मोक्ष हैं। आप ही काम और क्रोध हैं तथा आप ही सत्त्व, रज, तम, अधोलोक और उर्ध्‍वलोक हैं। ब्रह्मा, विष्णु, विश्वेदेव, स्कन्द, इन्द्र, सूर्य,यम,वरुण,चन्द्रमा, मनु, धाता, विधाता और धनाध्यक्ष कुबेर भी आप ही हैं। पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि, आकाश, वाणी, बुद्धि, स्थिति, मति, कर्म, सत्य, असत्य तथा अस्ति और नास्ति भी आप ही हैं। आप ही इन्द्रियां और इन्द्रियों के विषय हैं। आप ही प्रकृति से परे एवं अविनाशी तत्त्व हैं। आप ही विष्व और अविश्व-दोनों से परे विलक्षण भाव हैं तथा आप ही चिन्त्य और अचिन्त्य हैं। जो यह परम ब्रह्मा है, जो वह परमपद है तथा जो सांख्यवेत्ताओं और योगियों की गति है, वह आप ही हैं- इसमें संशय नहीं है। ज्ञान से निर्मल बुद्धि वाले ज्ञानी पुरुष यहाँ जिस गति को प्राप्त करना चाहते हैं, सत्पुरुषों की उसी गति को निश्चित रूप से हम प्राप्त हो गये हैं; अतः आज हम निश्चय ही कृतार्थ हो गये। अहो, हम अज्ञानवश इतने दीर्घकाल तक मोह में पड़े रहे हैं, क्योंकि जिन्हें विद्वान पुरुष जानते हैं, उन्हीं सनातन परमदेव को हम अब तक नहीं जान सके थे। अब अनेक जन्मों के प्रयत्न से मैंने यह साक्षात आपकी भक्ति प्राप्त की है। आप ही भक्तों पर अनुग्रह करने वाले महान देवता है, जिन्हें जानकर ज्ञानी पुरुष मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। जो सनातन ब्रह्मा देवताओं, असुरों और मुनियों के लिये भी ग्रह है, जो हृदयगुहा में स्थित रहकर मननशील मुनि के लिये भी दुर्विज्ञेय बने हुए हैं, वही ये भगवान हैं। ये ही सबकी सृष्टि करने वाले देवता हैं। इनके सब ओर मुख हैं। ये सर्वात्मा,सर्वदर्शी,सर्वव्यापी और सर्वज्ञ हैं। आप शरीर के निर्माता और शरीरधारी हैं, इसीलिये देही कहलाते हैं। दे हके भोक्ता और देहधारियों की परम गति हैं। आप ही प्राणों के उत्पादक, प्राणधारी, प्राणी, प्राणदाता तथा प्राणियों की गति हैं। ध्यान करने वाले प्रिय भक्तों की जो अध्यात्मगति हैं तथा पुनर्जन्म की इच्छा न रखने वाले आत्मज्ञानी पुरुषों की जो गति बतायी गयी हैं, वह ये ईश्वर ही हैं। ये ही समस्त प्राणियों को शुभ और अशुभ गति प्रदान करने वाले हैं। ये ही समस्त प्राणियों को जन्म और मृत्यु प्रदान करते हैं। संसिद्धि (मुक्ति)-की इच्छा रखने वाले पुरुषों की जो परम गति है, वह ये ईश्वर ही हैं। देवओं सहित भू आदि समस्त लोकों को उत्पन्न करके ये महादेव ही (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, सूर्य,चन्द्र,यजमान- इन) अपनी आठ मूर्तियों द्वारा उनका धारण और पोषण करते हैं। इन्हीं से सबकी उत्पत्ति होती है और इन्हीं में सारा जगत् प्रतिष्ठित है और इन्हीं में सबका लय होता है। ये ही एक सनातन पुरुष हैं। ये ही सत्य की इच्छा रखने वाले सत्पुरुषों के लिये सर्वोत्तम सत्यलोक है। ये ही मुक्त पुरुषों के अप वर्ग मोक्ष और आत्मज्ञानियों के कैवल्य हैं। देवता,असुर और मनुष्यों को इनका पता न लगने पाये, मानो इसीलिये ब्रह्माआदि सिद्ध पुरुषों ने इन परमेश्वर को अपनी हृदयगुफा में छिपा रखा है। हृदयमन्दिर में गूढ़भाव से रहकर प्रकाशित न होने वाले इन परमात्मा देव ने सबको अपनी माया से मोहित कर रखा है। इसीलिये देवता, असुर और मनुष्य आप महादेव को यथार्थ रूप से नहीं जान पाते हैं। जो लोग भक्तियोग से भावित होकर उन परमेश्वर की शरण लेते हैं, उन्हीं को यह हृदय-मन्दिर में शयन करने वाले भगवान स्वयं अपना दर्शन देते हैं।[2]

महात्मा तण्डि द्वारा प्रार्थना

जिन्हें जान लेने पर फिर जन्म और मरण का बन्धन नहीं रह जाता तथा जिनका ज्ञान प्राप्त हो जाने पर फिर दूसरे किसी उत्कृष्ट ज्ञेय तत्त्व का जानना शेष नहीं रहता है, जिन्हें प्राप्त कर लेने पर विद्वान पुरुष बड़े-से-बड़े लाभ को भी उनसे अधिक नहीं मानता है, जिस सूक्ष्म परम पदार्थ को पाकर ज्ञानी मनुष्य ह्रास और नाश से रहित परमपद को प्राप्त कर लेता है, सत्त्व आदि तीन गुणों तथा चौबीस तत्त्वों को जानने वाले सांख्यज्ञान विषारद सांख्ययोगी विद्वान जिस सूक्ष्म तत्त्व को जानकर उस सूक्ष्म ज्ञानरूपी नौका के द्वारा संसार समुद्र से पार होते और सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं, प्राणायाम परायण पुरुष वेदवेताओं के जानने योग्य तथा वेदान्त में प्रतिष्ठित जिस नित्य तत्त्व का ध्यान और जप करते हैं और उसी में प्रवेश कर जाते हैं; वही ये महेश्वर हैं। उंकाररूपी रथ पर आरूढ़ होकर वे सिद्ध पुरुष इन्हीं में प्रवेश करते हैं। ये ही देवयान के द्वाररूप सूर्य कहलाते हैं। ये ही पितृयान-मार्ग के द्वार चन्द्रमा कहलाते हैं। काष्ठा, दिशा, संवत्सर और युग आदि भी ये ही हैं। दिव्य लाभ (देवलोक का सुख), अदिव्य लाभ (इस लोकाका सुख), परम लाभ (मोक्ष), उतरायण और दक्षिणायन भी ये ही हैं। पूर्वकाल में प्रजापति ने नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा इन्हीं नीललोहित नाम वाले भगवान की आराधना करके प्रजा की सृष्टि के लिये वर प्राप्त किया था। ऋग्वेद के विद्वान तात्त्विक यज्ञ कर्म में ऋग्वेद के मंत्रों द्वारा जिनकी महिमा का गान करते हैं, यजुर्वेद के ज्ञाता द्विज यज्ञ में यजुर्मन्त्रों द्वारा दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य और आहवनीय- इन त्रिविध रूपों से जानने योग्य जिन महादेव जी के उदेश्य से आहुति देते हैं तथा शुद्ध बुद्धि से युक्त सामवेद के गाने वाले विद्वान साममन्त्रों द्वारा जिनकी स्तुति गाते हैं, अथर्ववेद ब्राह्मणों ऋत, सत्य एवं परब्रह्मा नाम से जिनकी स्तुति करते हैं, जो यज्ञ के परम कारण हैं, वे ही ये परमेश्वर समस्त यज्ञों के परमपति माने गये हैं।

रात और दिन इनके कान और नेत्र हैं, पक्ष ओर मास इनके मस्तक और भुजाएं हैं, ऋतु वीर्य है, तपस्या धैर्य है तथा वर्ष गुह्म-इन्द्रिय, उरू और पैर हैं। मृत्यु, यम, अग्नि, संहार के लिये वेगशाली काल, काल के परम कारण तथा सनातन काल भी- ये महादेव ही हैं। भुवन, मूल प्रकृति, महत्त्व, विकारों के सहित विशेष पर्यन्त समस्त तत्त्व, ब्रह्मा जी से लेकर कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत, भूतादि, सत और असत आठ प्रकृतियां तथा प्रकृति से परे जो पुरुष है, इन सबके रूप में ये महादेव जी ही विराजमान हैं। इन महादेव जी का अंशभूत जो सम्पूर्ण जगत चक्र की भाँति निरन्तर चलता रहता है, वह भी ये ही हैं। ये परमानन्दस्वरूप हैं। जो शाश्वत ब्रह्मा हैं, वह भी ये ही हैं। ये ही विरक्तों की गति हैं और ये ही सत्पुरुषों के परमभाव हैं। ये ही उद्वेगरहित परमपद हैं। ये ही सनातन ब्रह्मा हैं। शास्त्रों और वेदांगों के ज्ञाता पुरुषों के लिये यह ही ध्यान करने के योग्य परमपद हैं। यह वह पराकाष्ठा, यही वह परम कला, यही वह परम सिद्धि और यही वह परम गति हैं एव यही वह परम शान्ति और वह परम आनन्द भी हैं, जिसको पाकर योगीजन अपनेको कृतकृत्य मानते हैं। यह तुष्टि, यह सिद्धि, यह श्रुति, यह स्मृति, भक्तों की यह अध्यात्मगति तथा ज्ञानी पुरुषों की यह अक्षय प्राप्ति[3] आप ही हैं। प्रचुर दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा सकाम भाव से यजन करने वाले यज्ञमानों की जो गति होती है, वह गति आप ही हैं। इसमें संशय नहीं है। देव! उत्तम योग-जप तथा शरीर को सुखा देने वाले नियमों द्वारा जो शान्ति मिलती है और तपस्या करने वाले पुरुषों को जो दिव्य गति प्राप्त होती है, वह परम गति आप ही हैं। स्नातन देव! कर्म-संन्यासियों को और विरक्तों को ब्रह्मालोक में जो उत्तोमगति प्राप्य होती है, वह आप ही हैं।[4]

सनातन परमेश्वर! जो मोक्ष की इच्छा रखकर वैराग्य के मार्ग पर चलते हैं उन्हें, और जो प्रकृति में लय को प्राप्त होते हैं उन्हें, जो गति उपलब्ध होती हैं, वह आप ही हैं। देव! ज्ञान और विज्ञान से युक्त पुरुषों को जो सारूप्य आदि नाम से रहित, निरंजन एवं कैवल्यरूप परमगति प्राप्त होती है, वह आप ही हैं। प्रभो! वेद-शास्त्र और पुराणों में जो ये पाँच गतियाँ बतायी गयी हैं, ये आपकी कृपा से ही प्राप्त होती हैं, अन्यथा नहीं। इस प्रकार तपस्या की निधिरूप तण्डि ने अपने मन से महादेव जी की स्तुति की और पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने जिस परम ब्रह्मास्वरूप स्तोत्र का गान किया था, उसी का स्वयं भी गान किया।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 16 श्लोक 1-20
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 16 श्लोक 21-39
  3. पुनरावृतिरहित मोक्षलाभ
  4. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 16 श्लोक 40-62
  5. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 16 श्लोक 63-76

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आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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