महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 16 श्लोक 40-62

षोडश (16) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: षोडश अध्याय: श्लोक 40-62 का हिन्दी अनुवाद


जिन्हें जान लेने पर फिर जन्म और मरण का बन्धन नहीं रह जाता तथा जिनका ज्ञान प्राप्त हो जाने पर फिर दूसरे किसी उत्कृष्ट ज्ञेय तत्त्व का जानना शेष नहीं रहता है, जिन्हें प्राप्त कर लेने पर विद्वान पुरुष बड़े-से-बड़े लाभ को भी उनसे अधिक नहीं मानता है, जिस सूक्ष्म परम पदार्थ को पाकर ज्ञानी मनुष्य ह्रास और नाश से रहित परमपद को प्राप्त कर लेता है, सत्त्व आदि तीन गुणों तथा चौबीस तत्त्वों को जानने वाले सांख्यज्ञान विषारद सांख्ययोगी विद्वान जिस सूक्ष्म तत्त्व को जानकर उस सूक्ष्म ज्ञानरूपी नौका के द्वारा संसार समुद्र से पार होते और सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं, प्राणायाम-परायण पुरुष वेदवेत्ताओं के जानने योग्य तथा वेदान्त में प्रतिष्ठित जिस नित्य तत्त्व का ध्यान और जप करते हैं और उसी में प्रवेश कर जाते हैं; वही ये महेश्वर हैं। ॐकाररूपी रथ पर आरूढ़ होकर वे सिद्ध पुरुष इन्हीं में प्रवेश करते हैं। ये ही देवयान के द्वाररूप सूर्य कहलाते हैं।

ये ही पितृयान-मार्ग के द्वार चन्द्रमा कहलाते हैं। काष्ठा, दिशा, संवत्सर और युग आदि भी ये ही हैं। दिव्य लाभ (देवलोक का सुख), अदिव्य लाभ (इस लोक का सुख), परम लाभ (मोक्ष), उत्तरायण और दक्षिणायन भी ये ही हैं। पूर्वकाल में प्रजापति ने नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा इन्हीं नीललोहित नाम वाले भगवान की आराधना करके प्रजा की सृष्टि के लिये वर प्राप्त किया था। ऋग्वेद के विद्वान तात्त्विक यज्ञ कर्म में ऋग्वेद के मंत्रों द्वारा जिनकी महिमा का गान करते हैं, यजुर्वेद के ज्ञाता द्विज यज्ञ में यर्जुमंत्रों द्वारा दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य और आहवनीय- इन त्रिविध रूपों से जानने योग्य जिन महादेव जी के उदेश्य से आहुति देते हैं तथा शुद्ध बुद्धि से युक्त सामवेद के गाने वाले विद्वान साममन्त्रों द्वारा जिनकी स्तुति गाते हैं, अथर्ववेदी ब्राह्मण ऋत, सत्य एवं परब्रह्मा नाम से जिनकी स्तुति करते हैं, जो यज्ञ के परम कारण हैं, वे ही ये परमेश्वर समस्त यज्ञों के परमपति माने गये हैं।

रात और दिन इनके कान और नेत्र हैं, पक्ष ओर मास इनके मस्तक और भुजाएं हैं, ऋतु वीर्य है, तपस्या धैर्य है तथा वर्ष गुह्य-इन्द्रिय, ऊरु और पैर हैं। मृत्यु, यम, अग्नि, संहार के लिये वेगशाली काल, काल के परम कारण तथा सनातन काल भी- ये महादेव ही हैं। चंद्रमा, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह, वायु, ध्रुव, सप्तर्षि, सात भुवन, मूल प्रकृति, महत्त्व, विकारों के सहित विशेषपर्यन्त समस्त तत्त्व, ब्रह्मा जी से लेकर कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत, भूतादि, सत और असत आठ प्रकृतियाँ तथा प्रकृति से परे जो पुरुष है, इन सबके रूप में ये महादेव जी ही विराजमान हैं। इन महादेव जी का अंशभूत जो सम्पूर्ण जगत चक्र की भाँति निरन्तर चलता रहता है, वह भी ये ही हैं। ये परमानन्दस्वरूप हैं। जो शाश्वत ब्रह्मा हैं, वह भी ये ही हैं। ये ही विरक्तों की गति हैं और ये ही सत्पुरुषों के परमभाव हैं।

ये ही उद्वेगरहित परमपद हैं। ये ही सनातन ब्रह्मा हैं। शास्त्रों और वेदांगों के ज्ञाता पुरुषों के लिये यह ही ध्यान करने के योग्य परमपद हैं। यह वह पराकाष्ठा, यही वह परम कला, यही वह परम सिद्धि और यही वह परम गति हैं एवं यही वह परम शान्ति और वह परम आनन्द भी हैं, जिसको पाकर योगीजन अपने को कृतकृत्य मानते हैं। यह तुष्टि, यह सिद्धि, यह श्रुति, यह स्मृति, भक्तों की यह अध्यात्मगति तथा ज्ञानी पुरुषों की यह अक्षय प्राप्ति [1] आप ही हैं। प्रचुर दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा सकामभाव से यजन करने वाले यजमानों की जो गति होती है, वह गति आप ही हैं। इसमें संशय नहीं है। देव! उत्तम योग-जप तथा शरीर को सुखा देने वाले नियमों द्वारा जो शान्ति मिलती है और तपस्या करने वाले पुरुषों को जो दिव्य गति प्राप्त होती है, वह परम गति आप ही हैं। सनातन देव! कर्म-संन्यासियों को और विरक्तों को ब्रह्मलोक में जो उत्तम गति प्राप्त होती है, वह आप ही हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पुनरावृत्तिरहित मोक्षलाभ

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