भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
जय जननायक
सर्वत्र एक ही चर्चा थी– ‘मथुरा के वास्तविक स्वामी आ गये।’ मथुरा के अधीश्वर को पहचानने में अब किसी को कोई सन्देह नहीं रहा था। ‘कंस की पूरी सेना मार दी दोनों भाइयों ने आज ही। कंस गया नहीं था, अन्यथा उसकी भी आज समाप्ति हो जाती। कल सही–कल रंगशाला से बचकर कंस नहीं निकलेगा।’ ‘बड़ा गर्व था कंस को धनुष का। उस धनुष को मूली के समान तोड़ दिया उन्होंने। लोगों ने चाहे जितनी अतिश्योक्तियां गढ़ लीं– ‘धोबी को तो हाथ से मारा था, किन्तु सैनिक गये तो अंगुलि से संकेत किया और सैनिकों के सिर एक साथ टूट गिरे।’ ‘वे वासुदेव भगवान हैं। उनके लिए संकल्प करना ही पर्याप्त है।’ किसी भी बात पर कोई शंका नहीं कर रहा था। सब सोचते थे– ‘किसी को स्पर्श करके भी मारा होता तो उनके वस्त्रों पर, शरीर पर रक्त का छींटा नहीं पड़ता। भवन की नालियों से पानी के समान रक्त बहता रहा है।’ ‘भगवान वासुदेव!’ इसके साथ ही वसुदेव जी के साथ अपने दूर-दूर के सम्बन्ध भी लोगों को स्मरण आने लगे– ‘वसुदेव जी मेरे भाई होते हैं। क्या कहा होगा वासुदेव ने अक्रूर को?’ ‘चाचा जी कहेंगे।’ दूसरा कुछ कह भी कैसे सकते हैं। कोई चाचा है, कोई ताऊ और कोई पितामह। यदुवृद्धों में वात्सल्य उमड़ रहा है। यादव-तरुणों में भी स्नेह की बाढ़ आयी है– ‘वे हमारे छोटे भाई हैं।’ ‘वे सत्यक के नहीं, महर्षि गर्गाचार्य के यजमान हैं।’ ब्राह्मण वर्ग में चर्चा का ढ़ंग है– ‘हमने गर्गाचार्य जी के आचार्यत्व में यज्ञ कराया है। अथवा ‘हमने गर्गाचार्य जी से अध्ययन किया है।’ वे कितनी श्रद्धा से विप्रों को कल मस्तक झुका रहे थे।’ ब्राह्मणों के हृदय और उनकी वाणी दोनों भाइयों को अब तक आशीर्वाद दे रही है। ऐसा लगता है कि दोनों भाई अब भी मस्तक झुकाये नेत्रों के सम्मुख ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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