भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
देवकी का प्रथम गर्भ
‘देवकी गर्भवती है।’ कंस को यह समाचार सर्वप्रथम उसकी छोटी रानी प्राप्ति ने दिया- ‘उसे दूसरा महीना चल रहा है।’ छोटी रानी ने देवकी जी से बहुत निकटता प्रात कर ली थी। उसे सबसे अधिक सुयोग मिल गया था समाचार पाने का। कंस उसे बराबर प्रोत्साहित करता रहता था। उसने इतना कृत्रिम स्नेह प्रदर्शित किया था कि वसुदेव जी के सदन में उसे सब अत्यधिक स्नेहशीला मानने लगे थे। ‘अभी तो यह प्रथम गर्भ है।’ कंस ने निश्चिन्त होकर कहा- ‘फिर भी तुम प्रतिदिन वहाँ जाया करो। देवकी पर और अधिक सतर्क सृष्टि रखो। यह देखो कि उसे दोहद क्या होता है। वसुदेव कहीं देवकी को लेकर कभी भी भाग जा सकते हैं। अत: देवकी के समीप दिन-भर दोनों में से एक अवश्य रहे और रात्रि में भी विश्वस्त सेविकायें रहें।’ ‘आप निश्चिन्त रहें।’ रानी ने सोत्साह कहा- ‘अब तो देवकी के समीप गर्भवती की परिचर्या में निपुणा जो दासियाँ हैं, वही रहने लगी हैं ओर वे सब अपनी विश्वस्त हैं।’ ‘तुमको अब कोई श्रम नहीं करना चाहिये।’ छोटी रानी देवकी जी के आस-पास ही दिन-भर बनी रहती थी- ‘यह तुम्हारे लिए प्रथम अवसर है और नारी के लिए यह प्रथम अवसर पर्याप्त कष्टकर होता है।’ ‘आप तो है ही और अनुभवी है आप।’ देवकी जी सहज सरल हृदया-वे कंस की रानियों को अपनी हितैषिणी ही मानती थीं। उनसे यदाकदा परिहास कर लेती थीं। उनकी सूचनाओं का पालन करती थीं। रानी ने एक दिन कहा था- ‘वे स्वभाव से उग्र हैं। क्रोध आने पर उन्हें अपना-पराया नहीं सूझता; किंतु अपने उस व्यवहार से वे बहुत लज्जित हैं। मैंने उन्हें बहुत कहा; और वे संकोचवश तुम्हारे गृह आ नहीं पाते।’ ‘मै जानती हूँ’ देवकी जी की वाणी छलहीन थी- ‘भैया मुझसे बहुत स्नेह करते हैं। उन्हें बहुत ग्लानि हुई होगी। लेकिन उन्हें खिन्न होने का कोई कारण नहीं है।’ वसुदेव जी के सदन में किसी को कंस के क्रूर हृदय का अनुमान नही था। कंस कोई आशंका भी करता है और उसकी रानियों अथवा उसकी भेजी दासियों का सेवा एवं स्नेह के अतिरिक्त भी कोई प्रयोजन है, किसी को शंका नहीं हुई। कंस की रानियां बहुत स्नेह दिखलाती थीं। कंस के यहाँ से आयी दासियाँ बहुत तत्पर थीं सेवा में और अपने कार्यों में पर्याप्त कुशल थीं। ‘उसे कोई दोहद नहीं होता।’ कंस की रानियों ने बहुत प्रयत्न किया, बहुत पूछा, किन्तु देवकीजी के मन में कोई पदार्थ-सेवन की कुछ पाने की, कहीं जाने की या कोई विशेष कार्य करने की इच्छा ही नहीं होती थी। ‘मुझे केवल चुप रहना अच्छा लगता है।’ देवकीजी ने बतलाया था- ‘एक तन्द्रा जैसा भाव सदा बना रहता है। ऐसा आलस्य तो मुझे कभी नहीं आया था।’ ‘आलस्य तो पहली बार आता ही है।’ कंस की रानी ने समाधान कर दिया था। ‘देवकी बचपन से ही ऐसी है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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