भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
चक्र–मौशल युद्ध
आसपास दूर तक के वन उपवन जरासन्ध की सेना ने नष्ट कर दिए थे। वहाँ वृक्षों को उगने पनपने का अवकाश ही नहीं मिलता था। प्रति वर्ष के युद्ध ने समीपवर्ती खेतों को बंजर बना दिया। कृषक ऊब कर भागने लगे थे। स्वयं मथुरा की अपनी समस्याएं थीं। जरासन्ध तेईस अक्षौहिणी सेना, उसके गज, रथ, अश्व, ऊँट, खच्चर आदि पशु मारे जाते थे। उनके शव बिछ जाते थे। नगर के बाहर की समर भूमि में दूर दूर तक चारों ओर। रक्त की कीच, टूटे रथ–अस्त्रादि। वह पूरी भूमि दुर्गंध से भर उठती थी। भूत प्रेत पिशाच, कुत्ते, शृगाल, गीध, कौए आदि मांसभक्षी प्राणियों के झुण्ड आ जाते थे और आसपास महीनों तक मंडराते रहते थे। इतने पर भी उस क्षेत्र की स्वच्छता तो करनी ही पड़ती थी। वहाँ पड़े कंकाल, रथ–शस्त्रादि के खण्ड–इनको हटाए बिना तो मार्ग ही नहीं था। दुर्गंध–सड़ान कई सप्ताह तक नगरवासियों का नगर से निकलना कठिन किए रहती थी। सम्पूर्ण युद्धभूमि धोकर तो स्वच्छ करना सम्भव नहीं है। नागरिकों के लिए ईंधन, पुष्प, दूर्वालादि बहुत दूर से लाने पड़ते थे। इनका अभाव बढ़ता चला जा रहा था। जरासन्ध था कि थकना जानता नहीं था। वह तो सत्रहवीं बार भी सैन्य–सज्ज होकर चल पड़ा था मगध से। उसके आने का समाचार मिल गया था। मथुरा के लोग इस युद्ध के–वार्षिक युद्ध के अभ्यस्त हो गए थे। बहुत सी सावधानी और प्रस्तुति अब स्वत: होने लगी थी, किंतु इससे नगर का–राज्य का विकास अवरुद्ध होकर गया था। दूसरे कार्य रोक कर केवल आक्रमण से रक्षा में कोई राज्य कब तक लगा रह सकता है? जरासन्ध के आक्रमण का समाचार मिला तो इस बार श्रीकृष्ण ने महाराज उग्रसेन को सम्मति दी। यादव राजसभा का महाधिवेशन आमंत्रित हुआ। मथुरा के सब अग्रणी, वयोवृद्ध बुलाए गए। एक ही प्रश्न था–क्या करना चाहिए? इस विपत्ति से कैसे छुटकारा हो? विद्वान, अनुभवी युद्ध वृद्ध विकट उठ खड़े हुए उस सभा में। उन्होंने सम्बोधित करते हुए कहा– 'मुझसे एक बार भगवान व्यास ने यदुवंश की उत्पत्ति कथा सुनाई है। वह प्रचलित लोक ज्ञान से किञ्चित भिन्न है। उसे आप सब ध्यान से सुनें। सम्भव है, कोई मार्ग इस परम्परा के इतिहास से किसी को सूझ जाए।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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