भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
जरासन्ध का आक्रमण
मथुरा नाम मिटा दूँगा में पृथ्वी से। जरासन्ध क्रोधोन्मत्त होकर बोला– "लोग भूल जाएंगे कि धरा पर कोई मथुरा नाम का नगर भी था और कोई यदुवंशी जाति भी रहती थी। मथुरा के खण्डहरों का चिह्न भी नहीं रहने दूँगा।" क्रोधोवेश में कुछ भी बक जाना एक बात है और उसे कार्य रूप देना दूसरी बात। जरासन्ध बलवान था, मनस्वी था, अधिकांश नरेश उसे अपना अग्रणी मानते थे। वह विवेकहीन था, यह आक्षेप उस पर कभी किसी ने नहीं किया। वह कंस की शक्ति जान चुका था। महागज कुवलयापीड उसी ने कंस को दिया था। उस गज को और कंस को जिसने मार दिया समस्त सहायकों के साथ उसकी शक्ति सर्वथा उपेक्षा करने योग्य मगधराज मान लेता तो मूर्ख सिद्ध होता। उसे मथुरा पर आक्रमण तो करना था, किंतु पुर्णत: सुसज्ज होकर करना था। क्रोध के आवेश में तत्काल नहीं चल पड़ना था। अपने सहायक, समर्थक सब राजाओं को उसने समाचार भेजा। सबको अधिक से अधिक सेना लेकर जितनी शीघ्र हो सके आने को कहलाया। कहला दिया–इस अवसर पर अनुपस्थिति को वह अमित्रता मानेगा। मथुरा में अस्ति प्राप्ति के जाने की उपेक्षा की गई। वे विधवा कुलवधुएं थीं। उनका मन यदि पतिहीन स्वसुर गृह में नहीं लगता तो पिता के घर रहें। वे पिता को मथुरा के सर्वनाश पर उतारू कर देंगी, यह किसी ने कल्पना नहीं की। फलत: मगधराज के आक्रमण के विरुद्ध पहले से कोई सुरक्षा का प्रबंध नहीं किया गया। जरासन्ध और उसके सहायकों को सेना एकत्र करने के लिए समय पूरा मिला था। राम और श्रीकृष्ण गुरु-गृह शिक्षा पाने अवन्तिका चले गए। दो-ढाई मास उधर लग गया। लौटे तो श्रीकृष्ण चंद्र ने उद्धव को व्रज में भेज दिया। चार महीने बसंत, ग्रीष्म–व्रज रह कर उद्धव लौटे। पावस में कोई सैनिक अभियान नहीं चलाया जा सकता था। शरद ऋतु के प्रारम्भ से ही जरासन्ध के सहायक नरेश सेना के साथ आने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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