भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
वैर–बीज
‘प्रबल वैराग्य दारुण प्रभंजन।’[2] वे ‘कालोयस्मि’ कहने वाले श्रीकृष्ण का आश्रय लेकर जब तक जरासन्ध को चीर ने फेंके तब तक चलेगा-चलता रहेगा अस्ति-प्राप्ति से प्रेरित उत्पात। यह बहुत लम्बा–देर तक चलने वाला उपद्रव है। श्रीकृष्ण को भी इससे त्रस्त होकर मथुरा त्याग कर द्वारिका के महादुर्ग का आश्रय लेने को बाध्य होना पड़ा। कभी-कभी परिस्थिति व्यक्ति को विवश कर देती है। कोई भी कुछ करने में समर्थ नहीं होता। कंस की माता के नौ पुत्र मारे गये। उनकी पुत्र वधुएं अपने पतियों के कुचले, अंग-भंग शवों से लिपटी क्रन्दन करती रहीं और उन्हें दो शब्द आश्वासन कहने वाला कोई नहीं था। जिनके आतंक से दो घड़ी पहले तक मथुरा काँपती थी, उनके रुदन पर ध्यान देने वाला तक कोई नहीं। भरी रंगशाला क मध्य वे सिर पीटती, चिल्लाती रहीं–किसी ने उनकी ओर देखा तक नहीं। महाराज उग्रसेन उनके साथ चले थे, किन्तु श्रीकृष्ण से बात करने के पश्चात वे चिर-बिछुड़े माता-पिता से पुत्रों का मिलन देखने में भूल गये अपने को, अपने पुत्रों के शवों को, क्रन्दन करती पत्नी तथा पुत्रवधुओं को। उनको एक ही ध्यान रहा– ‘उनका प्रथम कर्तव्य है वसुदेव-देवकी से क्षमायाचना। अब क्षमा ही माँगी जा सकती है। उनके पुत्र ने इनके नवजात शिशु मारे हैं। इन्हें बन्दी रखा है। इनसे क्षमा माँगना चाहिये प्रथम।’ दूसरे सब नागरिक-राजसेवक भी वसुदेव जी के मंच की ओर देखने में तन्मय थे। सब उस मिलन को देखकर अपने को विस्मृत हो गये थे। जिनका कोई नहीं, विपत्ति में जिन्हें आश्वासन देने वाला भी नहीं, उन असहायों का जो सदा सहायक हुआ है, होता रहेगा, वह भूला नहीं था; किन्तु उसे भी परिस्थिति ने विवश कर रखा था। वर्षों से वियुक्त माता-पिता मिले थे। उनका उमड़ता वात्सल्य–देर लगी, पर्याप्त देर लगी उनके प्रेमावेश का किंचित शिथिल होने में। इस किंचित शिथिल होने से पूर्व उनसे कुछ कहा नहीं जा सकता था। वसुदेव-देवकीजी एक पुत्र को छोड़ते तो दूसरे को अंक में खींच लेते थे। पता नहीं, कब तक चलता यह क्रम; किन्तु तनिक-सा अवकाश मिलते ही श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा– ‘पिता जी! महाराज प्रतीक्षा करते खड़े हैं। उनके पुत्रों के शवों का अन्तिम संस्कार होना चाहिये।’ ‘चलो! चलो!’ वसुदेव जी लगभग व्याकुल होकर, चौंककर उठ पड़े। उन्हें लगा कि यह कार्य तो उनको प्रथम स्मरण आना चाहिये था। ‘हा नाथ! हा प्राणवल्लभ! आपके न रहने से हम मृत हो गयीं। ध्वस्त हो गये हमारे गृह। नष्ट हो गयी प्रजा।’ नारियाँ सिर और वक्ष पीट-पीटकर रो रही थीं। उनके केश बिखरे थे। वस्त्र अस्त–व्यस्त थे। आभूषण नोंंच-नोंंचकर उन्होंने फेंक दिये थे। असूर्यम्पश्या-राजवधुएं; किन्तु जब सिन्दूर ही पोंछ दिया गया तो अब शेष क्या रहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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