भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
वृष्णि वंश
मोक्षदायिनी पुरी मथुरा में यादवों के कुल पुरुष ने अपना निवास बनाया था पश्चिम भारत के साम्ब तीर्थ या स्तम्ब तीर्थ (खम्भात) से आकर। लोकस्रष्टा भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्र प्रजापति महर्षि अत्रि की परम सती पत्नी अनुसूया जी का पातिव्रत्य त्रिभुवन विख्यात है। महर्षि के तप तथा महासती के पातिव्रत ने त्रिदेवों कों उनका पुत्र बनने को बाध्य किया। भगवान नारायण के अंश से योगेश्वर दक्ष, शिवांश से महा मुनि दुर्वासा और ब्रह्माजी के अंश से चन्द्रमा की उत्पत्ति हुई। चन्द्र को तारा के गर्भ से पुत्र हुए बुध। यहाँ तक तो देवसृष्टि है। सोम और बुध दोनों ही ग्रह हैं। बुध ने इला को पत्नी बनाया और इनमें चन्द्र वंश के आदि पुरुष पुरुरवा उत्पन्न हुए। महाराज पुरुरवा के सौन्दर्य, प्रताप, तेज, बल ने अमर लोक की सर्वश्रेष्ठ अप्सरा उर्वशी को आकर्षित कर लिया और उनके उर्वशी के गर्भ से छ: पुत्र हुए। महाराज के ज्येष्ठ पुत्र नहुष का यश भी त्रिभुवन-विख्यात है। वृत्रवध से ब्रह्म-हत्या लगने पर जब इन्द्र अज्ञातवास करने लगे तो देवाधिप बनाने योग्य पुरुष देवताओं को भी त्रिभुवन में महाराज नहुष ही मिले थे। महाराज नहुष के भी छ: पुत्र हुए और उनमें द्वितीय पुत्र ययाति ने शुक्राचार्यजी की पुत्री देवयानी का पाणिग्रहण किया। दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा तो दासी बनकर साथ आयीं। देवयानी के पुत्र हुए यदु और तुर्वसु। शर्मिष्ठा के पुत्र, द्रुह्य, अनु ओर पुरु हुए। यहीं से यदुवंश और पुरु से पुरुवंश पृथक हुए। महाराज पुरुरवा के इस महान वंश में दो ॠक्ष, दो परीक्षित, तीन भीमसेन तथा दो जनमेजय नाम के महाभाग हुए हैं। हम जिन्हें जानते हैं वे भीमसेन, परीक्षित और परीक्षित का शिशु जनमेजय अन्तिम हैं। एक भीमसेन तो महाराज पुरुरवा के पुत्र अमावसु के ही पुत्र थे। इसी प्रकार हमारे पुरु के पुत्र जनमेजय थे। पितामह भीष्म के पिता शान्तनु के पितामह का नाम भी भीमसेन था और उनके पितामह विदूरथ भी जनमेजय के पौत्र थे। इन जनमेजय के पिता का नाम भी परिक्षित ही था। भगवान ब्रह्मा से पञ्चम हुए महाराज पुरुरवा। महाराज पुरुरवा से पञ्चम महाराज यदु। महाराज पुरुरवा से गणना करने पर सैंतालीसवें होते हैं महाराज वृष्णि; इन्हीं के कारण वृष्णिवंशी या वार्ष्णेय कहे जाते हैं श्रीकृष्ण। भगवान वासुदेव पुरुरवा से साठवें होते हैं। महाराज यदु से तैंतालीसवीं पीढ़ी में सात्वत पुत्र वृष्णि हुए। अत: वृष्णिवंशी सात्वत या सात्वतीय भी कहे जाते हैं। महाराज वृष्णि से नवम दूसरे वृष्णि हुए-इनका एक नाम क्रोष्टा भी था। इनसे चौथे हुए श्रीकृष्ण के पितामह शूरसेन जी। महाराज यदु के सहस्रजित, अनिल और क्रोष्टा – ये तीन पुत्र हुए। क्रोष्टा से ज्येष्ठ पुत्रों की गणना करें तो नामावली का क्रम है- वृजिनवान, स्वाही, रुषद्गु:, चित्ररथ शशिविन्दु, पृथुश्रवा, उत्तर, सुयज्ञ, उशना, ॠचक, ज्यामघ और इन ज्यामघ से विदर्भ, विदर्भ के ज्येष्ठ पुत्र रोमपाद के वंश में आगे चेदि और उनका पुत्र शिशुपाल हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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