भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
सैरन्ध्री सुंदरी
छि:…! कुछ क्षण लगे और लज्जा से वह भाग खड़ी हुई। इस वेश में इनका स्वागत करेगी? इनके सम्मुख जाएगी? वह तो स्नानागार में भाग गई। सखियों ने सुअवसर सहायता की। आसन दिया, पाद्य, अर्ध्य, अंगराग, माल्य, पुष्प से सत्कार किया इन त्रिभुवन मोहन का। वह तो यह सब कर ही नहीं पाती। उसका तो अंग अंग काँपने लगा था। बड़ी कठिनाई से स्नान करके, नूतन वस्त्र धारण करने पर वह सावधान हो सकी। उसे स्वागत तो करना चाहिए। वह आई– ओह! सखियाँ इन मेघश्याम, इन्दीवर सुंदर के सत्कार में ही लग गई हैं। उसने आसन उठाया और रखकर नम्रतापूर्वक उद्धव से कहा–आप खड़े हैं–विराजें। मैं अनुगृहीत हुआ। उद्धव ने आसन का हाथ से स्पर्श किया, मस्तक झुकाया और भूमि पर ही बैठ गए। उद्धव को–अपने इन छोटे भाई, सखा वृहद् बल को श्रीकृष्ण ने अपना अंतरंग बना लिया है। देवगुरु वृहस्पति के ये साक्षात शिष्य–इनको ब्रज भेजना है। इन्हें देख तो लेना चाहिए कि श्रीकृष्ण सैरन्ध्री की प्रीति की उपेक्षा नहीं कर पाते। ब्रज में जो प्रेमैक मूर्तियाँ हैं, उनसे मिलने के पूर्व एक झांकी–अस्त–व्यस्त अपूर्ण ही सही, किंतु एक परिचय तो इनको मिलना चाहिए। भगवान वासुदेव का अपार अनुग्रह कि वे उद्धव को अपना सखा–अंतरंग सखा मानते हैं। यहाँ भी साथ ले आए हैं, किंतु सुर गुरु के शिष्य उद्धव यहाँ आसन कैसे स्वीकार कर लें। यहाँ का आसन तो उनका वंदनीय ही हो सकता है। मैं अभी आऊँगा। बंक दृगों से सहास्य वन माली ने देखा उद्धव की ओर। उद्धव ने मस्तक झुका लिया– पता नहीं किसके लिए, किसके प्रेम पर वश आप कब क्या लीला करते हैं। आप पूर्ण काम की क्रीड़ा किन पिपासु प्राणों का प्रतिबिम्ब है–आपकी कृपा से मैं देख सकता हूँ। उद्धव के नमित नेत्रों ने ही मानो यह कह दिया। मस्तक झुकाए वे ऐसे बैठे रहे जैसे उन्हें पता भी न हो कि श्रीकृष्ण चंद्र वहाँ से उठ कर भीतर चले गए। वे तो अपनी ही चिंता धारा में निमग्न बैठे रहे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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