भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
गुरुकुल पहुँचे
महर्षि सान्दीपनि परम शैव हैं; किन्तु सात्विक शैव। काशीनरेश को अभिचारों के विशेषज्ञ प्रिय हैं। उन्हें नारायण का नाम तक सह्य नहीं। कोई भी आराधक द्वेष के इस ऊमर भरे वातावरण में कैसे रह सकता था। द्वेष, हिंसा, उत्पीड़न के कुत्सित संग को महर्षि सान्दीपनि ने त्याग दिया। भगवान् विश्वनाथ न सही, महाकाल सही। विश्वनाथ ही तो महाकाल हैं। भगवान् महाकाल की पुरी उज्जयिनी के समीप आश्रम बनाया महर्षि ने और तब से–सम्भवत: तब से सदा के लिए उज्जयिनी विद्या-वुभुक्षु ब्रह्मचारियों की आराध्यपुरी हो गयी। भगवती हंसवाहिनी ने तब से फिर इस पुरी को छोड़ा नहीं। महर्षि सान्दीपनि की लोकोत्तर ख्याति और भगवान महाकाल का सान्निध्य। मथुरा और अवन्तिका का स्नेह-सम्बन्ध भी है। श्रीवसुदेवजी की बहिन राजाधिदेवी ही राजमाता हैं अवन्तिका की। राम-श्याम बुआ की राजधानी की समीप निवास करें, महर्षि सान्दीपनि के आश्रम में रहें–यह वसुदेवजी ने महाराज उग्रसेन से सम्मति करके निर्णय कर लिया था। अवन्तिका दूर है मथुरा से। इतनी दूर पैदल नहीं भेजा जा सकता था कुमारों को, इसलिए रथ भेजना पड़ा। वैसे उपनयन में जो भिक्षाटन कर चुका, गुरु-गृह में रहकर विद्या की अधिदेवता का आशीर्वाद पाने से पूर्व वह राजकुमार कहाँ है। वह तो नियमस्थ ब्रह्मचारी है; क्या दरिद्र और क्या राजकुमार। मार्ग में सुरक्षा–कैसी सुरक्षा? गुरुगृह जाते ब्रह्मचारी पर आक्रमण या आघात करने की नीचता कोई असुर भी नहीं कर सकता। ब्रह्मचारी तो सबका रक्ष्य है। उसकी सुरक्षा क्या! सेना या सैनिक का संरक्षण लेकर कहीं साधु या ब्रह्मचारी चला करता है। महाराज उग्रसेन–अथवा वसुदेवजी पहुँचाने नहीं आ सके। कोई सूचना नहीं दी गयी अवन्तिका की राजमाता को। उनका कोई स्वजन स्वागत के लिए आवे–यह उचित नहीं था। गुरुकुल से लौटने के पूर्व ब्रह्मचारी का कोई स्वजन, सेवक, सहायक नहीं होता। ब्रह्मचारी का पहला कर्तव्य-प्रथम नियम है कि वह सर्वथा गुरु के आश्रित स्वावलम्बी एकाकी होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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