भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
माता देवकी
एक साथ इतना सौभाग्य और इतना क्लेश कैसे मिलता है जीव को? महाभाग वसुदेवजी और माता देवकी की सौभाग्य तथा क्लेश की भी सीमा सोचना कठिन है? महर्षि श्रीकृष्ण द्वैपायन ने लिखा है- "प्रजापति महर्षि कश्यप को यज्ञ करना था, वरुणदेव से वे उन गौओं को मांग लाये जो समुद्र-मन्थन से निकली सुरभि की सन्तान थीं। वे कामधेनु थीं।" उनको पाकर महर्षि कश्यप के यज्ञ में किसी सामग्री का अभाव रह नहीं सकता था। यज्ञ सांग सम्पन्न हो गया, किन्तु देवमाता अदिति और सुरभि के मन में लोभ आ गया। सुरभि ने कहा- ‘ये मेरी सन्तान हैं, मेरे पास रहें।’ देवमाता का कहना था- ‘सचराचर महर्षि की प्रजा है। सब आते हैं अपने पिता के आश्रम में। सुर-असुर, नागादि सब आते हैं और मुझे अपनी तथा अपनी सपत्नियों की सन्तानों का सत्कार करना पड़ता है। इन गायों की मुझे आवश्यकता है। वरुण इनका क्या करेंगे?’ देवमाता अदिति का दिति, दनु आदि सब समर्थन करने लगी थीं। सब चाहती थीं, गाये कश्यपाश्रम में ही रहें। सब पत्नियों का आग्रह महर्षि कश्यप को स्वीकार करना पड़ा। उन्होंने मांगने पर भी वरुण को गायें नहीं लौटायीं। जलाधीश वरुण सुर-असुर सबके पिता महर्षि कश्यप के साथ कोई धृष्टता करते तो सभी उनके शत्रु हो जाते। विवश होकर वे लोकस्रष्टा ब्रह्माजी के पास गये- ‘महर्षि मेरी गायें नहीं दे रहे हैं। ये गायें अपने तेज से ही रक्षित रहने वाली, कामधेनु हैं और समुद्रों में विचरण करती हैं। आपने और सभी देवताओं ने इन्हें मुझे प्रदान किया था। इनके अभाव में तो कंगाल हो गया हूँ। आप इन्हें दिला दे या फिर और किसी को जलाधिप बनावें।’ महर्षि कश्यप ने सुना तो पत्नियों सहित ब्रह्म लोक जाकर पितामह की स्तुति करके उन्हें प्रसन्न किया। वरुण को उनकी गौयें लौटा दीं। सुप्रसन्न ब्रह्माजी ने आश्ववासन–वरदान दिया- ‘पृथ्वी पर जन्म लेने पर आदिपुरुष तुम्हारे पुत्र रूप में अवतीर्ण होंगे और सुरभि भगवान अनन्त की जननी बनेंगी।’ महर्षि कश्यप के समान ही वसुदेवजी लोक पिता थे। उनको सब अपनी ही सन्तान लगते थे। किसी पर रुष्ट होते उन्हें किसी ने देखा नहीं। माता देवकी की गुण-गाथा अनन्त है। वे वात्यसल्यमयी तो कंस पर भी क्रोध नहीं कर सकीं। वे उसे भी दयापूर्वक ही स्मरण करती थीं– 'भाई कंस को विधि ने अपना खिलौना बना लिया’ –यही वाक्य उनके मुख से सदा कंस के लिए निकला। भगवान अनन्त की जननी रोहिणी जी को ब्रज में दीर्घकाल तक रहना पड़ा। वे सुरभि की अंशोद्भवा थीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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