भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
रोहिणी जी ब्रज गयीं
‘जीजी! मुझ अभागिनी का एक अनुरोध मान लो तुम!’ देवकी जी ने अचानक जब रोहिणी जी के चरण पकड़ लिये रोते हुए तो रोहिणी जी चौंक पड़ी। ‘तुम यह क्या करती हो!’ उन्होंने देवकी जी को हृदय से लगा लिया– ‘तुम जानती हो कि मेरे प्राण देने से भी तुम्हें सुख हो तो मैं हिचकूँगी नहीं।’ ‘जानती हूँ जीजी! देवकी उनके गले लगकर रोती-रोती ही बोलीं- ‘इसीलिए कहती हूँ कि मुझे वचन दो।’ ‘अच्छा वचन दिया तुमको।’ रोहिणी जी ने उनके आँसू पोंछ दिये अपने अंचल से ‘तुम मेरी अनुजा के समान ही नहीं हो, मेरी प्राण हो। ऐसा क्या है जो तुम चाहती हो और मैं नहीं कर सकूँगी?’ ‘सब बहिनें विपत्ति की मारी चली गयीं। वे सब बिचारी जाने कहाँ-कहाँ रहती होंगी।’ देवकीजी का दु:ख अपार था– ‘इस हतभाग्या के कारण ही सबको यह सब भोगना पड़ रहा है। उस दिन भाई कंस इसे मार ही देता.. ‘देवकी!’ रोहिणी जी ने दोनों हाथों में मुख पकड़ा और स्नेहसिक्त स्वर में बोलीं– ‘तू यही मत कहा कर! फट जाता है मेरा हृदय यह सुनकर! बोल क्या करूँ मैं तेरे लिए?’ ‘पता नहीं कब आठवाँ आवेगा और उसके आने पर भी क्या होगा, कौन कह सकता है।’ देवकी जी ने फिर चरण पकड़े रोहिणी जी के– ‘एक तुम्हीं यहाँ हो जीजी! तुम्हीं बचा सकती हो। ‘तुम कहो भी! मैंने वचन दे दिया है तुम्हें और इनके चरणों की शपथ करती हूँ।’ रोहिणी जी ने श्रीवसुदेव जी की ओर देख लिया– ‘कहो! क्या करना है मुझे?’ ‘इनका वंश ही नष्ट हो रहा है!’ देवकी ने अब कहा–‘तुम बचा लो वह वंश जीजी! इस अभागिनी ने तो वंश-दीप ही बुझा दिया।’ ‘ क्या?’ दो क्षण लगे देवकी जी की बात समझने में रोहिणी जी को और तब वे लज्जा से ऐसी संकुचित हो गयीं कि उनके मुख से शब्द ही नहीं निकला। ‘मैं तुम्हारी अनुजा हूँ।’ देवकी जी ने धीरे-धीरे कहा– ‘हम विपत्ति में हैं। इस समय मेरी लज्जा करोगी जीजी तो वंश ही नष्ट हो जायेगा। तुमने मुझे इनके चरणों की शपथ करके अभी वचन दिया है।’ ‘देवकी!’ रोहिणी जी ने कठिनाई से सम्बोधन किया। बात उनकी समझ में आ गयी थी कि इस कुल की रक्षा के लिए ऐसा कुछ करना आवश्यक है। श्रीशूरसेन जी का ही वंश समाप्त होने जा रहा था। अब तक वसुदेव जी की किसी दूसरी पत्नी से उन्हें कोई सन्तान नहीं हुई थी और न वसुदेव जी के छोटे भाइयों में ही किसी के अब तक कोई सन्तति हुई थी। रोहिणी जी ने देवकी की बात की महत्ता स्वीकार कर ली। अब जब वे कारागार में पहुँचतीं, देवकी जी प्राय: एक कोने में जाकर सो जाया करती थीं। वसुदेव जी ने दोनों पत्नियों की बात सुन ही ली थी। वे सदा यही कहकर चलने वाले थे– ‘जैसी श्रीहरि की इच्छा।’ अन्तत: यह प्रयत्न सफल हुआ। रोहिणी जी ने ही एक दिन देवकी के कान में फुसफुसाकर कहा– ‘अब तुम्हें दिन में निद्रा का आह्वान करने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारा संकल्प पूरा हो गया।’ ‘सच जीजी?’ देवकी ऐसी प्रसन्न हो उठीं, जैसे उनका पुत्र ही बच गया हो।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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