भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
मथुरा सुख बसी
वेदज्ञ ब्राह्मण, तपस्वी, भगवदभक्त–बड़ी संख्या में सपरिवार चले गये थे। कंस और उसके अनुचर स्वभाव से इस वर्ग के शत्रु थे। त्याग ही जिनका भूषण है, उनके कौन से भारी भवन थे। कुटिया, छोटा-सा आश्रम, उसमें दो-चार फलों के वृक्ष, कुछ पुष्प, बहुत हुआ तो एक या दो गायें। इतनी सम्पत्ति थी इनकी। ये जब चले गये स्थान त्यागकर–इनका क्या ठिकाना कि कहीं फिर आश्रम बनावेंगे या तीर्थाटन करते रहेंगे। देश धार्मिक, श्रद्धावान आश्रय दाताओं से सूना तो नहीं हो गया था। अहोभाग्य मानते थे नरेश कि उनके नगर में-राज्य में कहीं कोई वेदज्ञ विद्वान, कोई तपस्वी, कोई ऋषि-मुनि या भगवदभक्त रहता है–अथवा रहेगा। अब जो विप्रवर्ग चला गया मथुरा छोड़कर, उसने जहाँ भी आश्रय लिया, आश्रम बनाया–उसे क्यों दे? दस-ग्यारह वर्ष का काल कम नहीं होता। पांच-सात वर्ष में ही नवीन वृक्ष फल देने लगते हैं। पुष्प उसी वर्ष लग जाते हैं। इस वर्ग को ले आना फिर मथुरा सबसे बड़ा काम था। लेकिन यही वर्ग न आवे–मथुरा की शोभा होगी? एक ही आधार, एक ही आकर्षण था– ‘भगवान वासुदेव बुलाते हैं।’ श्रीकृष्ण स्वयं बुलावें, उनके समीप रहने का सुअवसर मिले, यह ऐसा प्रलोभन था जो विद्वानों, ब्राह्मणों, तपस्वियों, भगवदभक्तों को लौट आने को विवश करता था। मथुरा कंस ने लगभग उजाड़ कर दी थी। अच्छे सात्विक व्यापारी, उत्तम कलाकार मथुरा त्याग गये थे। जिन पर भगवती वीणापाणि प्रसन्न होती हैं–वे मानधनी होते हैं। उन्हें सम्मानपूर्वक रखना पड़ता है। कंस जैसे अहंमन्य, रुक्ष व्यक्ति की सेवा करते वे? उनके लिए क्या देश में स्थान नहीं था? वे जहाँ गये, हाथों पर ले लिये गये। उनको लौटाना था – वहाँ से लौटाना था जहाँ विपत्ति में उन्हें आश्रय, सम्मान, सम्पत्ति भी मिली थी। सरल था उनको लौटाना? श्रीकृष्ण के भेजे चर सन्देश ले जाते थे। लोगों का पता लगाकर आते थे और उनके लिए विशेष सन्देश ले जाते थे। व्यक्ति चाहे जैसी विपत्ति में घर छोड़े–मातृभूमि से उसके हृदय का लगाव होता है; किन्तु जहाँ जाकर वह रहने लगता है, वहाँ उसके नवीन सम्बन्ध बन जाते हैं। नया व्यवसाय जम जाता है। इस सबको सहसा समाप्त कर देना उनके लिए सरल नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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