भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
द्वारिकापुरी
श्रीकृष्ण चंद्र ने आग्रह करके महाराज को रथ पर बैठाया। मथुरा में महोत्सव तो होना ही था। महाराज उग्रसेन को श्रीकृष्ण चंद्र ने वस्त्र, आभूषण, बहुत- सा धन भेंट किया। ब्राह्मणों को, यदुवृद्धों को, अन्य पूज्य वर्ग को, कला जीवियों को सभी सेवकों परिकरों को यथायोग्य पुरस्कार प्राप्त हुआ। महोत्सव मथुरा में तो नित्य ही था। जहाँ राम–घनश्याम विराजें श्री एवं ऐश्वर्य वहीं तो रहेगा, किंतु मगधराज की ओर से श्रीकृष्ण चंद्र उदासीन नहीं रह सकते थे। मथुरा के गुप्तचर जरासन्ध की प्रत्येक गतिविधि का समाचार भेजते रहते थे। शत्रु से जो सावधान न रहता हो, वह शासक तो अयोग्य होगा। एक दिन गरुड़ आ गए। वे सीधे श्रीकृष्ण चंद्र के समीप आए। श्री बलराम जी को साथ लेकर श्रीकृष्ण चंद्र गरुड़ की बात सुनने अंत:कक्ष में चले गए। महाराज रेवतपुरी कुशलस्थली समुद्र के मध्य थी। रुक्मी ने उसे उजाड़ दिया आक्रमण करके। अब वहाँ घोर वन है। उसमें हाथी, रीछ, अजगर आदि वन पशुओं ने अपना निवास बना लिया है। गरुड़ ने बतलाया–मैं वह स्थान देख आया। उस पर आपका स्वत्व है, क्योंकि देवी रेवती के पितृ कुल का स्थान है वह। वहाँ उत्तमपुरी का निर्माण हो सकता है, यदि समुद्र कुछ स्थान और छोड़ दे। वहाँ नगर देवताओं के लिए भी अजेय होगा। समीप ही रैवतक गिरि है। वह स्थान सर्वथा आपकी राजधानी के उपयुक्त है। आपने एक बड़ी समस्या सुझला दी। यह कह कर गरुड़ का सत्कार करके श्रीकृष्ण ने उन्हें विदा कर दिया। आर्य! समाचार आ रहे हैं कि इस बार मगधराज ने कालयवन से सहायता मांगी है। हम लोगों के लिए जरासन्ध और कालयवन दोनों ही अवध्य हैं। श्रीकृष्ण चंद्र ने गरुड़ के चले जाने पर बड़े भाई से कहा–कालयवन ने प्रस्थान कर दिया है। उसके दो–तीन दिन पीछे ही जरासन्ध भी आ पहुँचेगा। हम दोनों कालयवन से युद्ध में उलझ जाएंगे, क्योंकि कालयवन और म्लेच्छों की बहुत बड़ी सेना को हम दोनों के अतिरिक्त कोई रोक नहीं सकता। ऐसी अवस्था में जरासन्ध आ गया तो हमारे स्वजन अकेले–असहाय पड़ जाएंगे। यादव–महारथियों में कोई मगधराज को दो–तीन दिन भी रोक नहीं सकता। वह या तो सबको मार देगा अथवा बंदी बनाकर गिरिव्रज से जाएगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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