भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
भूभार क्या ?
पृथ्वी पर पार्थिव देहों की संख्या कुछ भी हो, उससे भूमि पर भार तो नहीं बढ़ता। भूमि के तत्वों से सब प्राणियों के शरीर बनते हैं, अत: पृथ्वी पर जनसंख्या दस करोड़ हो या दस अरब, क्या अन्तर पड़ता है? सब शरीरों के रूप में मिट्टी रहे या बिना शरीर के अपने शुद्ध रूप में रहे, मिट्टी रहेगी तो उतनी ही। अत: भूभार-हरण का क्या अर्थ है? शरीर का कोई अंग आवश्यकता से अधिक बढ़ जाय या निष्क्रिय हो जाय- वह भार हो जाता है या नहीं? तुमने पर्याप्त मोटे मानव देखे हैं। उनके देह में एकत्र मेद उनके लिए भार ही तो है। दूसरा भार मन पर होता है। जो बात हमें अप्रिय है- वह हमारे समीप बराबर होती रहे तो मन भार पीड़ित होता है। धरा पर ये द्विविध भार होते हैं। पहला भार है पृथ्वी पर सेना की अभिवृद्धि।[1] सैन्य शक्ति आवश्यक है समाज में उत्पीड़क-निरंकुश तत्वों की नियन्त्रित रखने तथा बाहरी आक्रमण से रक्षा के लिए; किन्तु प्राय: क्रूर एवं महत्वाकांक्षी शासक दूसरे राज्यों पर शासन-स्थापित करने के लिए, उन्हें पराजित करने के लिए, दूसरों को आतंकित करने के लिए सैन्य शक्ति बढ़ाते रहते हैं-बढ़ाते ही जाते हैं और जब एक पड़ोसी या प्रतिद्वन्द्वी अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाता है तो दूसरे को भी अपनी सुरक्षा या प्रतिष्ठा-रक्षा के लिए सैन्य शक्ति बढ़ानी पड़ती है। इस प्रकार की प्रतिस्पर्धा प्रारम्भ हो जाने पर पूरा समाज बहुत पीड़ा पाता है। सेना को सबसे अधिक सुविधा चाहिए; क्योंकि उसे सदा युद्ध-तत्पर रहना है। उस पर होने वाला व्यय पर्याप्त अधिक होता है। सामान्य नागरिक की अपेक्षा बहुत अधिक। लेकिन युद्ध काल के अतिरिक्त सेना का उपयोग? सेना उत्पादक तत्व नहीं है। देश के उत्पादन का एक बड़ा भाग सेना पर व्यय होता है। यह व्यय बढ़ता जाता है सैन्य शक्ति की वृद्धि के साथ और उत्पादक समाज को अभाव-ग्रस्त जीवन व्यतीत होने को बाध्य होना पड़ता है। प्रतिस्पर्धी का आतंक सैन्य शक्ति को घटाने नहीं देता। इस प्रकार सेना की वृद्धि पूरे समाज पर- पृथ्वी पर ही भार बनती है। सम्पूर्ण मानव ही नहीं, सम्पूर्ण प्राणियों का शोषण चलता रहता है सेना के लिए। राज्यों की संख्या जितनी बढ़ती है- सेना का भार उतना बढ़ता जाता है और संसार में जब किन्हीं शासकों को आसुर उन्माद चढ़ता है, सर्वजयी होने- सब पर प्रभुत्व स्थापन की इच्छा प्रबल होती है, यह भार बहुत अधिक बढ़ जाता है। केवल किसी को पराजित कर देने से ही तो बात समाप्त नहीं होती। अन्याय, अधर्म, उत्पीड़न-शोषण करने वाले को अपना प्रभुत्व, अपना आतंक बनाये रखने के लिए भी बहुत बड़ी सैन्य शक्ति सन्नद्ध रखनी पड़ती है। यह बढ़ी हुई सेना समाज पर भार है और उसका आतंक भार रहता है जन मानस पर।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भूभारराजपृतना......।भागवत11.1.3
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