भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कंस का प्रयत्न
महाराज उग्रसेन को समाचार मिला तो वे तत्काल रथ पर बैठ गये थे; किन्तु उसी समय दूसरा समाचार मिला कि कंस ने देवकी को छोड़ दिया और वे अपने सदन चले गये। ‘तुमने देवकी पर खड्ग उठाया?’ क्रोध में भरे महाराजा उग्रसेन द्वार पर ही खड़े थे, कंस को देखते ही वे उच्च स्वर में बोले। ‘उसका अष्टम गर्भ मुझे मारेगा, यह भी सुन लिया आपने?’ कंस ने कोई हिचक अथवा नम्रता नहीं प्रदर्शित की। ‘अनेकों ने मेरे विरुद्ध शस्त्र उठा लिया था वहाँ।’ ‘तुम अमर हो?’ उग्रसेन जी का स्वर तीक्ष्ण बना रहा- ‘तुम कभी मरोगे नहीं? छोटी बहिन पर हाथ उठाते लज्जा नहीं आयी तुम्हें? जिन्होंने शस्त्र उठाया वे प्रशंसा के–पुरस्कार के पात्र हैं। उनमे मनुष्यत्व जीवित है। तुम अब तक उन पर रोष लिये हो और अपने कर्म पर तुम्हें ग्लानि नहीं हो रही है?’ ‘अपने मारने वाले को मैं मार दूंगा।’ कंस ने भी उग्र स्वर में ही कहा- ‘उसके रक्षकों–सहायकों को भी।’ उसने पिता की उपेक्षा कर दी और अपने भवन की ओर चला गया। ‘ओह ! कुलांगार!’ महाराज उग्रसेन ने हाथ मल लिये। वे कुछ क्षण जाते कंस को घूरते रहे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि इस अपने पुत्र को वे कैसे समझावें। मन्त्रियों ने आग्रह करके महाराज को राजसदन पहुँचाया। कंस सीधे अपने सदन के मुख्य कक्ष में गया और उसने अपने असुर मित्रों को बुलाने के लिए सेवक भेज दिये; किन्तु उसका चित्त अत्यन्त अशान्त था। उसे इस समय किसी पर विश्वास नहीं रह गया था। उसे लगता था कि उसके पिता भी उसकी मृत्यु चाहते हैं। वह अपने अन्त:पुर में पहुँच गया। ‘आकाशवाणी ने कहा है कि देवकी का अष्टम गर्भ मुझे मार देगा।’ अपनी दोनों रानियों को बुलाकर उसने सुनाया- ‘तुमने यह सुन लिया या नहीं?’ ‘दासी दौड़ी आयी थी तनिक देर पूर्व!’ रानी अस्ति ने कहा- ‘वह कुछ ऐसा ही अमंगल सुना रही थी; किन्तु मैंने उसे डांटकर चुप कर दिया था।’ ‘वह ठीक सुना रही थी।’ कंस ने ध्यान से रानियों के मुख पर सृष्टि स्थिर–स्थिर की। वह उनकी प्रतिक्रिया समझ लेना चाहता था। ‘आपने देवकी को छोड़ क्यों दिया?’ छोटी रानी प्राप्ति का मुख अरुण हो उठा- उपद्रव की जड़ तो वही है।’ ‘बहुत कलंक मिलता।’ रानी अस्ति अत्यन्त डरे हुए स्वर में बोलीं- उसे छोड़कर तो अच्छा किया आपने, किन्तु उसके आठवें गर्भ की उपेक्षा सर्वथा नहीं करनी है।’ ‘वह नहीं ही करनी है।’ कंस अपनी रानियों के भाव से सन्तुष्ट होकर बोला- ‘किन्तु तुम दोनों को भी कुछ करना है।’ ‘आज्ञा करें आप!’ दोनों ने एक साथ कहा- ‘अपने सौभाग्य की–सिन्दूर की रक्षा के लिए हम प्राण भी देने को प्रस्तुत हैं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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