भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
गुरुकुल पहुँचे
आश्रम-भूमि से पर्याप्त दूर ही संकर्षण और श्रीकृष्ण ने रथ त्याग दिया। अब रथ अवन्तिका में जायेगा और वहीं इनके अध्ययन काल तक रुका रहेगा। प्रतीक्षा करेगा सारथि बनकर आया मथुरा का वह मन्त्री। ब्रह्मचारी सदा गुरु-चरणों में एकाकी ही पहुँचता है। उसी उपवन से राम-कृष्ण ने थोड़ी सूखी आम्र-समिधायें एकत्र कीं। रिक्तहस्त गुरु का दर्शन नहीं किया जा सकता और ब्रह्मचारी के समीप हो भी क्या सकता है। उसके लिए तो पत्र-पुष्प लाने का भी विधान नहीं है। वह गुरु के अग्निहोत्र के लिए समिधा लाता है। मानो प्रार्थना करता है– ‘मैं इन काष्ठों के समान रसहीन हूँ। आपकी कृपा ही मुझमें रस-सृष्टि करने में समर्थ है।’ गुरु-सेवा, संयम और कठोर तप से ही भगवती हंसवाहिनी प्रसन्न होती हैं। उपकरणों की आवश्यकता नहीं होती ब्रह्मचारी को। उत्तरीय बना ऐणेयाजिन, आस्तरण के लिए कुक्षि में दब आश्वाजिन, पलाश-दण्ड कर में, कन्धे पर भिक्षा की झोली, कर में जल-पात्र और कौपीन–इतना ही उपकरण होता है अन्तेवासी बनने को आये ब्रह्मचारी के समीप। गुरु के सम्मुख रखने को थोड़ी-सी सूखी समिधायें साथ लेकर आता है वह। ‘यह वृष्णिगोत्रीय यादव वासुदेव कृष्ण श्रीचरणों में प्रणत है।’ अग्रज ने इसी प्रकार नाम लेकर प्रणिपात कर लिया, तब बड़े भाई के समान ही समिधायें सामने रखकर श्रीकृष्णचन्द्र ने साष्टांग प्रणिपात किया गुरुदेव को। नाम, कुल, गोत्र सूचित करते ही तो प्रणाम करने की भारतीय परम्परा है। महर्षि सान्दीपनि प्रात: कृत्य सम्पन्न कर चुके थे। वे अपने यज्ञधूम सुरभित, गोमयोपलिप्त स्वच्छ, सुन्दर आश्रम में यज्ञशाली की वेदिका पर कृष्ण मर्गचर्म के ऊपर दूसरे अग्निदेव के समान विराजमान थे। अनेक देशों से आये तपस्वी ब्रह्मचारी चारों ओर बैठे थे महर्षि के। विद्या के इन परम-गुरु की कृपा ही तो युवक को योग्य बनाती है। श्वेत-श्मश्रु केश, शुभ्र वलीपलित कृश काया, त्रिपुण्ड शोभित विशाल भाल, सुदीर्घ कृपापूर्ण लोचन–लगता था कि भगवान महेश्वर स्वयं द्विनयन होकर, चन्द्र को छिपाकर ऋषिवेश बनाये वेदी पर आ बैठे हैं। ‘वासुदेव कृष्ण श्रीचरणों में प्रणत है।’ जल्द गम्भीर स्वर सुधा-स्निग्ध। अन्तेवासी छात्रों ने मुड़कर देखा और महर्षि उठ खड़े हुए वेदिका से। उनका उत्तरीय बना ऐणेयाजिन खिसककर भूमि में गिर पड़ा। दोनों वलीपलित, रजतरोम भुजाएं बढ़ाकर दोनों भाइयों को उठाया उन्होंने और हृदय से लगा लिया आशीर्वाद देते– ‘आयुष्मान् भव।’ गदगद कण्ठ, अश्रुधारा सिंचित होते श्मश्रु। राम-श्याम की अलकें उन बिन्दुओं से सिंचित हो गयीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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