भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अक्रूर लौट आये
कंस को वैसे उसके चरों ने समाचार दे दिया था कि केशी वहाँ सूर्योदय के समय पहुँच गया था। उसकी भी वही गति हुई जो व्रज जाने वाले और असुरों की हुई थी। श्रीकृष्ण ने उसे भी सहज ही मार दिया था। उसका शव जनपद से दूर घसीटकर गोपों ने गड्ढे में डाला सूखी लकड़ियाँ भरकर फूँक दिया उसे। ‘ऐसा ही कुछ होगा, यह अनुमान तो मैंने पहले ही कर लिया था।’ कंस ने ऊपर से यह कहकर अपने को निश्चिन्त प्रकट किया; किन्तु उसके भाल पर स्पष्ट चिन्ता की रेखायें उभर आयी थीं। ‘अक्रूर जी क्या हुआ?’ कंस ने कल अनेक बार पूछा था। उसने नगर से बाहर तक कई बार चर भेजे थे– ‘अक्रूर जी को वहाँ प्रात: ही पहुँच जाना चाहिये था। वे केशी से थोड़े ही पीछे पहुँचे होंगे। सांयकाल तक उन्हें आ जाना चाहिये।’ कंस की उतावली के अनुसार तो कुछ होना नहीं था। चर बार-बार एक ही सम्वाद देते थे– ‘रथ के लौटने का कोई चिह्न दिखलायी नहीं देता।’ ‘कहीं अक्रूर ने वहाँ तात्पर्य प्रकट न कर दिया हो।’ कंस रात में बहुत चिन्तित रहा। उसे पूरी रात नींद नहीं आयी– ‘अक्रूर वैसे भी धार्मिक है और झूठ नहीं बोल सकता। वह वसुदेव का भाई भी लगता है। मैंने उस पर भरोसा करके अच्छा नहीं किया।’ ‘वे दोनों कम चतुर तो नहीं हैं।’ कंस की चिन्ता अनेक विकल्प उत्पन्न करती है– ‘उन्होंने अक्रूर के वहाँ आने, मेरे बुलाने का तात्पर्य अनुमान कर लिया हो तो?’ ‘अक्रूर उन्हें मेरे रथ पर बैठाकर कहीं दूर सुरक्षित स्थान पर चला जाय?’ कंस क्रोध से काँपता है। ऐसा कुछ हुआ तो कल वसुदेव-देवकी के साथ अक्रूर के पूरे परिवार को वह मार देगा। ‘अक्रूर को वे मारेंगे तो नहीं।’ कंस को यह आशंका नहीं है– ‘उसे वे बलपूर्वक वहीं रोक लें और स्वयं कहीं दूर चले जायें? उसे बलात साथ आने को विवश कर दें?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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