भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
आकाशवाणी और...
विवाह के दूसरे दिन मध्याह्न-सत्कार करके वर-वधू को विदा करना था। कंस ने स्वर्ण-निर्मित रत्नखचित रथ सज्जित किया। हिमश्वेत श्यामकर्ण अश्व चतुष्ट्य-युक्त वह रथ देखते ही बनता था। अद्भुत थी उसकी सज्जा। सम्पूर्ण सज्जित सारथि बद्धाञ्जलि उपस्थित था। मंगल-गान एवं स्वस्तिपाठ के मध्य वर-वधू उस पर विराजमान हुए। श्री शूरसेन जी प्रात: ही अपनी आराधना को आवश्यक मानकर महाराज उग्रसेन से विदा लेकर चले गये थे। महाराज एवं देवक जी ने नव-दम्पत्ति को आशीर्वाद दिया। ‘युवराज आप?’ वसुदेव जी ने देखा कि कंस ने संकेत से सारथि को रथ के पृष्ठ भाग में खड़े होने के स्थान पर चले जाने का कहा और स्वयं कूदकर सारथि के स्थान पर आ बैठा है। ‘मैं अपनी बहिन को उसके नवीन गृह तक पहुँचा आता हूँ।’ कंस को अट्टहास करके हँसने का अभ्यास था- 'अभी वह आपसे अपरिचित प्राय: है। इसकी बड़ी बहिनों से समीप इसे छोड़कर मैं लौट आऊँगा। मुझे मथुरा से कहाँ बाहर जाना है? तनिक देख भी लेना है बहिन के नवीन गृह की साज-सज्जा। ‘आप रथ में हमारे समीप विराजें।’ वसुदेव जी ने तनिक खिसककर कंस के लिए दाहिने भाग में स्थान बनाया। ‘मुझे बहुत अच्छी प्रकार रथ–चालन आता है।’ कंस ने हंसकर कहा- ‘आपके लिए भय की कोई बात नहीं है।’ ‘युवराज सर्व विद्या-निपुण है; किन्तु यह कर्म युवराज के उपयुक्त नहीं है।’ वसुदेव जी जानते थे कि कंस दुराग्रही है, वह मानेगा नहीं। अन्तिम बार आग्रह किया उन्होंने। ‘यादव राजकुमार अपनी अनुजा को उसके गृह तक पहुँचा आवे, यह तो गौरव की बात है राजकुमार के लिए।’ कंस ने प्रग्रह उठा लिया था। अश्व चल पड़े मन्दगति से। रथ के चारों ओर घिरी नारियां थोड़े पद हट गयीं। शंखनाद गूंजा। ब्राह्मणों ने स्वस्ति पाठ किया। दम्पत्ति पर सुमन-वर्षा होने लगी पथ के दोनों ओर से। ‘मूर्ख कंस! ’ आकाश से एक वज्र निष्ठुर शब्द गूंजा। चौंककर कंस ने रथ-रश्मि खींच ली और घूमकर ऊपर देखा। उसके नेत्र अंगार के समान जल उठे। कौन है जो उसे इस प्रकार सम्बोधित करने का साहस करता है? किन्तु कहां-कहीं कोई दीखता नहीं और वह भयानक स्वर तो गूंज ही रहा है- ‘तू जिसको सारथि बनकर पहुँचाने जा रहा है, उसका अष्टम गर्भ तेरा काल होगा।’ ‘मेरा काल? मैं मरुँगा?’ कंस तो अपने को अमर मानता है। उसने मृत्यु को भले न जीता हो, देवताओं पर विजय प्राप्त कर ली है और यम भी तो देवता ही है। सहसा धक्का लगा कंस के हृदय को। आकाश से गूंजता शब्द समाप्त हो गया; किन्तु दो क्षण वह आकाश को घूरता ही रहा। ‘देवकी का अष्टम गर्भ मुझे मारेगा?’ कंस ने घूमकर नववधू की ओर देखा और रथ से कूद पड़ा। रथ-रश्मि उसके हाथों से पहले ही छूट चुकी थी। दाहिने हाथ से कटि में बँधे रत्न जटित कोश से अपना लम्बा खड्ग खींचा और झटके से देवकी का अवगुण्ठन शिरोवस्त्र खींचकर उनकी वेणी पकड़ ली। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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