भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
गुरु सेवा
राम और कृष्ण जबसे आए हैं, गुरु पत्नी की व्यस्तता बढ़ गई है। कपियों, भल्लूकों, वन गजों के उपहार वे कहाँ तक संभालें। वे वन पशु उटज प्रांगणों को फलों, कंदों, मधु छत्रों से भरे ही रहते हैं। कितने अद्भुत सुस्वादु उपहार लाते हैं ये सब। राम और कृष्ण के ही उपहार कहाँ कम हैं। ये दोनों भाई बहुत मना करने पर भी वेदाध्य न समाप्त करके मध्यान्ह के पूर्व झोली कंधे पर रख कर निकलते हैं, किंतु किसी के घर में ये कब किस दिन गये। वन पशुओं के उपहारों से ही इनकी झोलियाँ भर जाती है। ये तो तरुओं तक से भिक्षा ले लेते हैं। इनके अरुणकर फैले और पक्वफल चू पड़ा। वृक्ष जैसे इनकी प्रतीक्षा ही करते रहते हों। ये दोनों भाई जबसे आए हैं, छात्रों का भिक्षाटन बंद हो गया है। मध्याह्न महर्षि के चरणों में जब ये अपनी झोलियाँ अर्पित करते हैं–महर्षि और गुरु पत्नी कितना आग्रह करती हैं कि ये अपने लिए कुछ फल ले लें उसमें से। ये तो अनुमति मिलते ही छाँटने लगते हैं–ये कंद–फल गुरुदेव के लिए ये गुरु पत्नी स्वीकार करने की कृपा करें। यह अमुक सहपाठी के लिए और यह अमुक के लिए। आश्रम धेनुओं, बछड़ों, कपियों और मृगों तक के लिए। पता नहीं, कितने प्राणियों को इनको तृप्त करना रहता है। गुरु पत्नी स्वयं आग्रह करके न खिलावें तो दोनों भाइयों को अपने भोजन का स्मरण ही नहीं। ये दोनों भाई गुरु सेवा की मूर्ति हैं। गुरुदेव के स्नान, हवन, पूजन की सम्पूर्ण सेवा, मध्याह्न तथा रात्रि में गुरुदेव के चरण दबाना और गुरु पत्नी की सुविधाओं की व्यवस्था इन दोनों ने ऐसी संभाल ली है कि दूसरे छात्रों को कुछ करने का ही अवसर नहीं देते। जल ये लाएंगे, फल पुष्प, समिधाएं, कुश ये वन से संग्रह करेंगे। काष्ठ दूसरे को लाने देने से रहे। गो सेवा के लिए कह देंगे–यह कार्य तो हमने जन्म से किया है। यह हमारा स्वत्व है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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