भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
शिक्षण-प्रशिक्षण
कृष्ण चंद्र ने केवल कला के क्षेत्र में ही नहीं, विद्याओं के क्षेत्र में नूतन स्थापनाएं कर दी हैं। नवीन तर्क, नवीन शैली, नवीन योजना–राम–कृष्ण प्रतिदिन ही प्रत्येक क्षेत्र को दिव्य वरदान दे रहे हैं। आमूल नवीन उद्भावना नवीन चेतना दोनों भाई देते हैं किसी भी कला में, विद्या में और और ऐसे देते हैं जैसे यह गुरुदेव की कृपा से–उनके आशीर्वाद से हो गया है। इतनी मेधा, यह ज्ञान किसी लोकपाल में संभव नहीं है। महर्षि सांदीपनि ने निश्चय कर लिया है-समझ लिया है कि निखिल ज्ञान घनैक परम पुरुष के अतिरिक्त कोई दूसरा ऐसा नहीं हो सकता है। इन्होंने मुझे गौरव दिया है। अब महर्षि एकांत में पत्नी से कहते हैं–मुझमें जितनी शक्ति , जितनी विद्या है, उससे मैं इनकी सेवा का प्रयत्न कर रहा हूँ। महर्षि का कण्ठ अपने इन शिष्यों की चर्चा करते समय भर आता है। वे भाव विह्वल हो उठते हैं। अध्ययन की ऐसी भी निष्ठा होती है–हो सकती है–यह महर्षि के अन्तेवासियों ने इन दोनों को देखकर जाना है। कितने तत्पर, कितने श्रमशील, कितने एकाग्र रहते हैं दोनों भाई। दोनों ब्रह्ममुहूर्त के प्रारंभ में ही उठ जाते हैं। गुरुदेव के उठने से पहले ही इनका स्नान हो चुका होता है। जव जिस विषय का अध्ययन चलना है, उसके उपयुक्त सामग्री वहाँ प्रस्तुत रखने में ये किसी सहाध्यायी को सहयोग का सौभाग्य देते कभी? आप यह विषय ग्रहण कर रहे हैं। मैंने भी गुरुदेव के अनुग्रह से इसमें यत्किञ्चित जाना है। आप बड़े हैं, पहले से गुरु चरणों की सेवा में हैं। मेरा पाठ सुन लेने की कृपा करेंगे? कृष्णचंद्र को लगता है कि किसी सहपाठी को अपने अध्ययन के किसी विषय में कहीं कठिनाई हो रही है तो वह इस प्रकार उसके पास जा बैठता है, मानो स्वयं उसे सहायता की अपेक्षा है। आप अनुग्रह करना चाहते हैं और पूछने का मिस करते हैं। राम तक अपने अनुज के समान विनम्र बन गया है। उससे कुछ पूछो तो ऐसे बोलेगा जैसे पूछने वाले ने कृपा की है? दोनों भाई इतने स्नेह से–सम्मान से, निपुणता से समझाते हैं कि वर्षों में प्राप्त होने वाली विद्या इनके सामीप्य से क्षणों में हृदयंगम होने लग गई है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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