भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
श्रीगर्गाचार्य गोकुल गये
‘तुमको देखता हूँ तो लगता है, मेरा पौरोहित्य सफल हो गया।’ आचार्य ने भाव भरे स्वर में कहा– ‘किन्तु कुछ भी कहने से तुम्हें संकोच होगा। मेरी प्रसन्नता के लिए अपना प्रयोजन बतलाओ।’ ‘देवकी अत्यन्त व्याकुल है।’ वसुदेव जी भी जानते थे कि इस समय आचार्य त्वरा में हैं। उन्हें दैनिक हवन-पूजन करना है– ‘रोहिणी का पुत्र गोकुल में लगभग सवा वर्ष का हो चुका और छोटे को भी कल सौ दिन पूरे हो जायँगे।’ ‘आपत्तिकाल में समय पर संस्कार न होना दोष नहीं होता।’ आचार्य ने कहा– ‘भगवान आसुतोष शीघ्र सुयोग देंगे और तब विलम्ब का प्रायश्चित कठिन नहीं होगा। मैंने इसी से नन्दराय जी को कहला दिया था कि रोहिणी-कुमार का संस्कार अभी न किया जाय। वसुदेव जी कहते गये– ‘किन्तु छोटे को वे अपना ही आत्मज जानते हैं। उनका तो है ही अब–उसका संस्कार वे करना चाहेंगे। बहुत संकोची हैं नन्दराय जी, इसी से बड़े के संस्कार न होने के कारण अपने तनय का भी संस्कार अब तक नहीं कराया; किन्तु कल जब वह सौ दिन का हो जायगा, बहुत दु:ख होगा उन्हें।’ ‘महर्षि शाण्डिल्य सर्वज्ञ हैं।’ गर्गाचार्य खुलकर हँसे– ‘मेरे प्रमुखतम यजमान को ही वे अपना नहीं बना लेंगे। वैसे उसे अपना यजमान बनाने का अवसर सुरगुरु को भी प्रलुब्ध करेगा।’ ‘कंस ने उत्कच को भेज दिया गोकुल।’ वसुदेव जी ने दूसरी बात कही- ‘उसका कोई समाचार नहीं मिला। वह कब कुछ कर बैठे।’ महर्षि ने पार्श्व से पट्टिका और शुभ्र मृत्त्तिका उठायी। दो क्षण कुछ गणित करते रहे और फिर मस्तक उठाया– ‘वसुदेव! मेरा गणित कहता है कि तुम्हारे शिशु का यह संकट तो कब का टल चुका। उत्कच अब जीवित नहीं है।’ ‘प्रभु का अनुग्रह।’ वसुदेव जी ने महर्षि के चरणों पर मस्तक रखा– ‘देवी देवकी का अनुरोध था कि श्रीचरण गोकुल पधारते नन्दभवन और किसी प्रकार दोनों बालकों का नामकरण कर देते।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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