भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अक्रूर ब्रज गये
पुरोहित सत्यक जी स्वप्न सुनकर स्तब्ध रह गये। अन्त में बोले– ‘महेश्वर पूजन करो। महेश्वर धनुष का यज्ञ करके उसे उठाओ। लेकिन सावधान! धनुष किसी भी प्रकार टूट गया तो यजमान का नाश निश्चित है।’ चिन्तित कंस ने अपने प्रमुख मन्त्रियों, सहायकों को तो बुलाया ही, अपने दानाध्यक्ष अक्रूर जी को भी वहीं बुला लिया। उसके सिर में जैसे आँधी चल रही थी– ‘अब इस विपत्ति को समाप्त ही कर देना है। इन विरोध करने वाले यादवों को–सभी प्रतिपक्षियों को वह सर्वथा समाप्त कर देगा अब। उसने जो उनके साथ कुछ मृदुल व्यवहार किया, उससे ये अतिशय धृष्ट हो गये हैं।’ ‘मुझे गोपों के यहाँ पलने वाले बालकों से सन्धि करने की सलाह दी जाती है।’ क्रोध से उसका अंग जल रहा था। उसने मन्त्रियों के अतिरिक्त चाणूर, मुष्टिक, शल, तोशल, कूट आदि मल्लों को तथा कुवलयापीड गज के प्रधान महावत को जो मथुरा की गजशाला का अध्यक्ष भी था, बुला लिया था। ‘आप सब मेरी बात ध्यान से सुनें!’ कंस ने सबकी ओर देखा एक बार– ‘वसुदेव के पुत्र राम और कृष्ण नन्दव्रज में हैं। उनके द्वारा ही मेरा मृत्यु का विधान देवताओं ने किया है। उनकी बहुत दिन उपेक्षा की गयी, अब उन्हें और अवसर देना उचित नहीं है। मैं उनको यहीं बुला रहा हूँ।’ वहाँ नन्दव्रज में वे अपने स्थान पर सबल हैं। मथुरा आवेंगे तो यहाँ कंस और उसके अनुचर प्रबल रहेंगे, यह कंस का सोचना उसके अनुरूप ही था। ‘वे यहाँ आ जायें तो उनको मल्लयुद्ध में लगाकर आप लोग मार डालें।’ कंस ने आज्ञा दी– ‘मल्लक्रीड़ा के लिए मल्लशाला सजायी जावे। वहाँ नागरिकों तथा आगन्तुकों के बैठने के लिए दो दिन में उपयुक्त विस्तृत मंच बना दिये जावें। दर्शकों के–स्त्रियों के भी बैठने और मल्लक्रीड़ा देखने की उचित व्यवस्था की जावे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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