भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
श्रीकृष्णावतार
अर्धरात्रि का वह धन्यकाल–धरा पर घोर अन्धकार को विदीर्ण करता प्राची में क्षितिज से इन्दु की अमृतमयी किरणें ऊपर उठीं और उसी समय, समकाल ही, कंस के कारागार के उस कक्ष में देवी देवकी के सम्मुख वह दिव्य ज्योति प्रकट हुई जिसने त्रिभुवन में छाये तमसावरण को विच्छिन्न कर दिया। गगन का चन्द्र कलंकित है, अष्टमी को आधा ही रहता है। घटता-बढ़ता है। लेकिन देवी देवकी के सम्मुख जो कृष्णचन्द्र प्रकट हुआ, वह नित्यपूर्ण पुरुष, उसका स्मरण निखिल कलंक कल्मष को ध्वस्त कर देता है। महामुनि गर्गाचार्य जी ने जब अवसर आने पर नामकरण किया तो कहा था– ‘ये भगवान मुकुन्द हैं। इनका सहज गुण है अनन्तकाल से अविद्यान्धकार में भटकते जीव को मुक्तिदान करना। ‘विष्वकसेन’ यह नाक्षत्रिक नाम उसी रात्रि में वसुदेव जी ने रखा था अपने कुमार का; किन्तु यह नाम लोक में प्रचलित नहीं हुआ। लोक में तो वासुदेव ऐसे प्रिय हुए कि पीछे पौण्ड्रक तथा शृगाल अपने को वासुदेव कहने लगे। माता देवकी को लगा था कि उन्हें तन्द्रा आ गयी है। समस्त धार्मिक, भक्तिप्राण प्राणियों के समान वसुदेव जी भी घनीभूत सत्वगुण के कारण अन्तर्मुख हो गये थे। एक आनन्द समाधि में निमग्न थे वे। अचानक कारागार का वह कक्ष सहस्त्र-सहस्त्र पूर्णचन्द्र के सम्मिलित प्रकाश के समान दिव्यजोति से प्रकाशित हो उठा। वसुदेव जी ही सर्वप्रथम सावधान हुए। उन्होंने देखा देवकी के सम्मुख दिव्य शिशु खड़ा है मन्द-मन्द मुस्करा रहा है। वह नवजलधर सुन्दर, तड़िदाम्बर, वनमाली, रत्न किरीटी। अपनी विशाल भुजाओं में उसने कंकण, अंगद आदि धारण किये हैं। करों में शंख, चक्र, गदा और पद्म है। कण्ठ में महामणि कौस्तुभ है। वक्ष पर वनमाला के मध्य श्रीवत्स चिह्न है। कटि में रत्नमेखला है। चरणों में नूपुर हैं। एक दृष्टि पर सर्वांग पर घूम गयी। नवनीत सुकुमार सर्वांग और उससे ज्योत्स्ना झर रही है। दृष्टि मुख पर आयी–पल्लव मृदुल मुस्कराते अधर, विशाल भाल पर तिलक, बंक भृकुटि और दीर्घ दृग–दृष्टि उन कृपावर्षण करते दृगों पर लगीं और स्थिर हो गयी। श्रीहरि स्वयं पधारे!’ वसुदेव जी का सम्पूर्ण शरीर रोमांचित हो गया। रोम-रोम से स्वेद-धारा चलने लगी। कई क्षण वे केवल देखते रहे। नेत्र के पलक तक गिर नहीं सकते थे। कुछ क्षण लगे स्वस्थ होने में। वसुदेव जी ने अंजलि बाँध ली। मस्तक झुकाया।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीकृष्ण की यह कुण्डली ‘खमाण्डिक्य' नामक ज्योतिष ग्रन्थ में हैं और इसी को सूरदासजी ने भी एक पद में दिया है।
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज