भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
धन्य माली सुदामा
‘कहाँ जा रहा है कन्हाई?’ सखाओं में से किसी ने पूछा। नगर देखना है, कहीं निश्चति स्थान पर तो जाना नहीं है। कोई गली भी तो देखना चाहिये कि मथुरा की गलियाँ कैसी हैं। इसमें भी कुछ देखने को हो सकता है। ‘ये लोग कहाँ जा रहे हैं?’ नागरिकों को अवश्य कूतुहल हुआ; किेन्तु पूछने का साहस किसी ने नहीं किया। ‘ये सर्वतन्त्र स्वतन्त्र भगवान हैं’ नागरिकों के हृदय में यह बात बैठ गयी है। उनके सामने कंस के रंगकार का शव पड़ा है राजपथ पर अभी कुछ ही दूरी पर और वृद्ध गुणक इनके स्पर्श से तरुण हो गया है। इस गली में कुछ करना होगा इन्हें। मन-प्राण इनमें लगे हैं, अत: नागरिक चुपचाप पीछे चल रहे हैं। चलते गये दोनों भाई सखाओं के साथ। चलते रहे उनके पीछे गोपकुमार और उनके पीछे शतश: नगर के सामान्य नागरिक। गली प्राय: समाप्त हो गयी। एक साधारण सा अन्तिम भवन और उससे लगा पुष्पोद्यान आया। श्रीकृष्णचन्द्र उस भवन के द्वार पर पहुँचे और बिना रुके अग्रज के साथ भवन में चले गये। गोपकुमारों ने देखा एक-दूसरे की ओर– ‘किसका भवन होगा? कन्हाई तो कहीं किसी के घर में ऐसे ही जा सकता है; किन्तु दाऊ भी प्रसन्न जा रहे हैं तो किसी परिचित का भवन होना चाहिये।’ गोपकुमार भीतर चले गये; किन्तु नागरिकों को रुकना था द्वार पर। उनमें चर्चा चल पड़ी– ‘अक्रूरजी वसुदेवजी के भाई होते हैं, वे रथ पर बैठाकर इन्हें ब्रज से ले आये। बालक बतलाते थे कि रोकर चरण पकड़कर उन्होंने दोनों भाइयों से अपने भवन चलने की प्रार्थना की, पर इन्होंने स्वीकार नहीं की और इस भवन में ये बिना बुलाये स्वयं चलकर आये हैं! इस गृह और इसके गृहपति सुदामा के सौभाग्य की कोई सीमा है! वह राजपथ तक भी इन्हें बुलाने नहीं गया और ये ऐसे आये जैसे यह भवन सदा से इनका परिचित हो।’ अब लोगों में सुदामा की चर्चा चल पड़ी। बाहर द्वार पर खड़े-खड़े वे कह रहे थे– ‘मथुरा के वे दिन भी थे जब सुदामा के करों की गूंथी माला मन्दिरों में श्रीविग्रह पर चढ़ाने को मिल जाया करती थी। वैसा माल्य-ग्रन्थन फिर देखने में नहीं आया। सुमन सुदामा का कर-स्पर्श पाकर मानो बोलने लगते थे। वहाँ किस रंग का, कितना बड़ा पुण्य लगाना–यह काम ही माली जानते हैं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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