भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कुब्जा सुन्दरी
अचानक एक वीथी से एक नारी निकली–कूबड़ी नारी। वह किसी की ओर नहीं देखती। हाथ में उसने एक सोने की डलिया ले रखी है। डलिया में स्वर्ण कटोरियाँ हैं अनेक रंगों के अंगरागों से भरी हुई। वह कहीं शीघ्रता में अपने ढंग से चलती जा रही है। वह निकलती है जिधर से–अंगरागों की सुरभि बिखेरती जाती है। कुब्जा को अभ्यास है दृष्टि नीचे किये चलने का और लोगों की बातों पर ध्यान न देने का। उसे विधाता ने कूबड़ी बनाया। बालक उसके चलने का नाट्य करके उसे चिढ़ाते रहते हैं। कभी कोई तरुण उस पर व्यंग्य भी कर देता है। इसलिए कुब्जा किसी ओर मार्ग में ध्यान नहीं देती। किसी की बात पर कान नहीं दिया करती। वह अपने ढंग से सिर झुकाये चलती है। विधाता ने एक कृपा की है कुब्जा पर। उसे अंगराग बनाने और लगाने की कला मिली है। इस कला ने उसे कंगाल नहीं रहने दिया। वह राजसेविका बन गयी। महाराज के अंगों पर अंगराग लगाने की सेवा मिल गयी उसे। फलत: वह सम्पन्न है। मथुरा में उसका सुन्दर-सा भवन है; किन्तु भवन और धनमात्र ही मिला बेचारी को। कुब्जा सुन्दरी है। बड़ा मनोहर मुख है उसका। बड़े-बड़े नेत्र, अधर, उज्वल दन्तावाली, टेढ़ी भौंहे, घुंघराले लम्बे केश, सिन्दूर घुले दुग्ध-सा वर्ण; किन्तु कुब्जा अपने कूबड़ का क्या करे? कभी कोई तरुण रस-परिहास करता है तो वह जल-भुनकर रह जाती है। जानती है कि बोलेगी तो लोग उसे और अधिक चिढ़ावेंगे। ‘सुन्दरी कौन हो तुम? किसकी हो? किसके लिए यह अंगराग ले जा रही हो?’ कृष्णचन्द्र ने कुब्जा को देखा तो तनिक आगे बढ़कर पूछ लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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