भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कोल-वध
उन अयोध्या नाथ ने अपने आत्मज कुश का अभिषेक किया था अयोध्या में, किंतु प्राणि-हीन अयोध्या में कुश रह पाते? उन्होंने गंगा यमुना के मध्य परम पावन भाग में कौशाम्बी बसाई। कालांतर में अयोध्या के अधिदेवता का स्वप्नादेश पाकर कुश पुन: अयोध्या आ गए। लेकिन कौशाम्बी एक समृद्ध नगरी बन गई थी। द्वापरान्त–इस श्वेतवाराह मन्वन्तर की वर्तमान अट्ठाइसवीं चतुर्युगी में जो द्वापर बीत गया है, उसके अंत में कौशाम्बी के नरेश थे कौशारवि–परम सात्त्विक, सरल, धर्मात्मा, प्रजापालक और भगवान अनन्त के परम भक्त। द्वापरान्त शांत, सत्त्वगुणी, सरल नरेशों के लिए सुखदकाल नहीं था। कंस का मित्र एक कोल बलवान होने से उद्धत हो उठा। अपनी जाति के लोगों के साथ लेकर उसने कौशाम्बी पर आक्रमण करके अधिकार कर लिया। वहाँ के नरेश वन में भागने को विवश हुए। महाराज कौशारवि के लिए राज्य करने की अपेक्षा वन में रहना अधिक सुखद था। उन्हें वहाँ अपने आराध्य की आराधना का एकांत अवसर मिल गया था। वे वन में तपस्या करने में लग गए–मेरे आराध्य जब धरा पर अवतीर्ण हो चुके हैं, इस तुच्छ जन को भी अपने दर्शन से धन्य करेंगे? उस चिन्यम वपु के दर्शन का पात्र भी तो होना चाहिए मुझे। वन्य जाति कोल–नीति, धर्म, सदाचार, शासन, सुव्यवस्था से उसका क्या परिचय? फिर असुर इस जाति में अवतीर्ण हों–प्रजा प्रतिदिन उत्पीड़ित होने लगी। राजा और राजकुल के लोग–उन कोलों ने तो लूटना, हत्या करना, धन तथा स्त्री हरण ही सीखा था। किसी का कुछ स्वत्व भी होता है–स्वत्व क्या? बलवान जिससे जो चाहे छीन ले। जब चाहे जिसे मार कर अपना मनोविनोद कर ले–यही तो वन्य जाति का स्वभाव है। ऐसे स्वभाव के लोग जब शासन का स्वत्व प्राप्त कर लें–प्रजा तो हत्यारों के हाथ में पड़े पशुओं के समान हो गई। तपस्वी, वेदज्ञ, विद्वान ब्राह्मण, देव मंदिर, गायें आदि की महत्ता क्या कोल के लिए? उसे शूकर, शशक या गौ समान। उसके लिए अपना कोल देव पर्याप्त। यज्ञ, व्रत, तप, आराधना आडम्बर लगते थे उसे ब्राह्मणों के। यज्ञोपवीतधारी मात्र से उसे चिढ़ थी। स्वभाव से वह हिंसा विनोदी था। लोगों का समूह अग्नि में जलता हाहाकार करे, एक बड़ी भीड़–निरस्त्र भीड़ सहसा सैनिकों की शरवर्षा से आहत चिल्लाती भागे, इसमें उसे प्रसन्नता होती थी। वह अट्टहास करके हँसता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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