भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
नगर दर्शन
तोरणद्वार से नगर के चारों ओर ऊंची लाल पत्थर की परिखा बनी थी। इस परिखा पर चढ़ जाना या इसे लाँघ लेना किसी मनुष्य के लिए सम्भव नहीं था। जब द्वार खुले हों तभी नगर में प्रवेश किया जा सकता था। प्राय: नगर-द्वार खुले ही रहते थे। केवल युद्धकाल में उन्हें बन्द रखा जाता था और उन पर सैनिक नियुक्त किये जाते थे। नगर-परिखा के बाहर द्वारों के समीप पुष्पोद्यान थे और उनसे लगे हुए उपवन थे। इन उपवनों में से ही आम्रोपवन में श्रीव्रजराज गोपों के साथ अपने छकड़ों को लेकर ठहरे थे। नगर में तोरणद्वार से प्रवेश करते ही राजपथ के दोनों ओर ऊँचे भवन थे। उन भवनों में किसी का शिखर स्वर्ण-मण्डित था और किसी का रजत-मण्डित। उन पर स्वर्ण-कलश सुशोभित थे जो दूर से चमकते रहते थे। भवनों के ऊपरी भाग में अनेक प्रकार के कलामण्डित छज्जे थे। मार्ग के दोनों ओर श्रेणीबद्ध बने इन भवनों के नीचे के भाग में कहीं दुकानें थीं, कहीं सभागृह थे और कहीं लोगों के बैठने के लिए चबूतरे बने थे। इन वेदियों (चबूतरों) में कोई वैदूर्य मणि जटित थी, कोई हीरक जटित, कोई स्वच्छ स्फटिक की, कोई मूंगे से बनी, कोई मोतियों या मोतियों के सीप से अथवा पन्ना से बनी थीं। भवनों के ऊपर ध्वजदण्ड सोने, चांदी या रत्नों से मण्डित थे और उनमें अनेक रंगों की पताकायें फहरा रही थीं। इन पताकाओं के रंग तथा इनमें बने चिह्नों से भवन किस वर्ण के व्यक्ति का है, यह पता लग जाता था। जैसे ब्राह्मणों के भवनों पर लाल या गैरिक पताकायें थीं और उन पर स्त्रुवा, शंख या अग्निकुण्ड बने थे। क्षत्रियों के भवनों पर श्वेत पताकायें अनेक चिन्हों से युक्त थीं। वैश्य पीली पताका भवन पर लगाते थे। भवनों में गवाक्षों से अगरु का सुगन्धित धुआँ निकलता रहता था। इससे गवाक्ष धूम्रवर्ण हो गये थे। नागरिकों ने मयूर तथा कबूतर पाल रखे थे। वे भवनों पर बोलते-उड़ते थे अथवा मार्ग में चबूतरों पर जहाँ-तहाँ उनके लिए पड़े अन्न पर एकत्र थे और दाना चुग रहे थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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