भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
वसुदेव ‘आनकदुन्दुभि’
शूरजी ने अपने सन्तानहीन मित्र महाराज कुन्त को अपनी ज्येष्ठ पुत्री पृथा दत्तक दे दी थी और इसी से उनका नाम कुन्ती हो गया। महाराज पाण्डु ने उनका पाणिग्रहण किया। श्रुतदेवा जी का विवाह करुषाधिप वृद्धशर्मा से हुआ, उनका पुत्र दन्तवक्र था। केकय नरेश धृष्टकेतु ने श्रुतकीर्ति का पाणिग्रहण किया, सन्तर्दनादि पाँच पुत्र हुए और उनकी कन्या भद्रा जी तो भगवान वासुदेव की पट्टमहिषी ही हुईं। चेदिराज दमघोष के साथ परिणय हुआ श्रुतश्रवा का, उनका पुत्र था शिशुपाल। अवन्ती नरेश जयसेन से विवाह हुआ राजाधिदेवी का, उनके पुत्र हुए विन्द और अनुविन्द तथा श्रीकृष्णचन्द्र ने जिन्हें महारानी बनाया, वे मित्रविन्दाजी पुत्री थीं उनकी। उद्धव की माता कंसा उग्रसेन जी की ज्येष्ठ पुत्री थी। उनके दो पुत्र हुए- बृहद्धल (उद्धव) और उनके ज्येष्ठ भ्राता चित्रकेतु। ग्रन्थों में है कि जिसके मस्तक पर बिना छत्र लगाये ही छत्र के समान सदा कमलाकार छाया बनी रहे उसे चक्रवर्ती कहा जाता है।[1] ऐसी छाया सदा श्रीवासुदेव जी के मस्तक पर देखी गयी। महाराज उग्रसेन के मस्तक पर यह छाया स्वाभाविक थी; किन्तु? ऐसी छाया द्वारिका में प्रद्युम्न और अनिरुद्ध के मस्तक पर भी देखी जाती थी। भगवान बलराम और वासुदेव के मस्तक पर दीखी तो इसमें आश्चर्य ही क्या? त्रिभुवन के स्वामी ने जिन्हें पिता का गौरव दिया, वे भूमि के चक्रवर्ती नरेश का पद स्वीकार करें या न करें, वे तो सहज निखिल भुवन वन्द्य हैं। उनका आदेश स्वीकार करना सौभाग्य है त्रिभुवनाधीश के लिए भी। यह छाया तो केवल यह सूचित करती है कि चक्रवर्ती का ऐश्वर्य, प्रभुत्व, गौरव उस व्यक्ति में है। वसुदेव जी के सभी भाई उनका ऐसा सम्मान करते थे कि अग्रज का वैसा सम्मान पाण्डवों में ही देखा गया था। वे भी अपने सब अनुजों को अतिशय स्नेह करते थे। उनका भवन ही नहीं, उनका अपना कक्ष भी उनके अनुजों का जैसे अपना ही गृह रहा। उनके अनुजों के सभी बालकों ने कभी अनुभव नहीं किया वे हमारे पिता नहीं हैं। कंस ने उन्हें बहुत सताया था, उनको कितनी मनोव्यथा निरन्तर वर्षों तक झेलनी पड़ी- कोई कल्पना है! किन्तु उनका श्रीमुख सदा शान्त–गम्भीर दीखता था। कोई क्लेश-कोई व्यथा उन्हें स्पर्श नहीं कर सकी थी। अवश्य इसका एक सुपरणिाम हुआ था कि वे और माता देवकी भी अत्यन्त करुणा कातर हो गये थे। दोनों को किसी के भी दु:खी होने की कल्पना असह्य थी। पितामह शूरसेन जी ने बहुत बड़ी आयु पायी। वे अन्त तक स्वस्थ, सशक्त बने रहे वैसे उनके लिए यह अच्छा नहीं हुआ। उन परम श्रद्धेय को अपने पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र और उनकी भी सन्तानों का महासंहार स्वयं देखना पड़ा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यस्य मूर्धानि दृश्येत विना छत्रेण भूपते:। पद्मनुकारिणी छाया तमाहु: चक्रवर्तिनम्॥
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