भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
द्वितीय संस्करण के सम्बन्ध में
अपना सोचा कहाँ किसी का पूरा होता है। ‘श्रीकृष्ण-चरित’ लिखने बैठा था, तब लगता था कि यह जीवन का अन्तिम प्रयास है। लेखनी की यह अन्तिम कृति है। किन्तु कन्हाई को कब क्या रुचेगा, कैसे कोई जाने। हाथ में कम्पन रहते भी मेरे इस नन्द-तनय ने मुझसे लगभग इतना ही बड़ा चार खण्डों का श्रीरामचरित लिखवाया। ‘शिवचरित’ ‘आञ्जनेय की आत्मकथा’ ‘यशोदा उन्मादिनी यशोदा’, ‘ब्रज का एक दिन’ और ‘वे मिलेंगे’ इस प्रकार छोटे-बड़े अनेक ग्रन्थ लिखवाये। ‘श्रीकृष्ण-चरित’ लिखना प्रारम्भ किया था, तब कल्पना भी नहीं थी कि यह छप भी सकेगा। वृन्दावन में जब भाई श्रीजयदयाल डालमिया मिले थे, तब मैं इसका ‘पार्थ-सारथि' लिख रहा था। ‘यह कब छपेगा?’ उनके इस प्रश्न का उत्तर यही मैंने दिया था- ‘कभी नहीं।’ ‘दो हजार पृष्ठ से भी बड़े ग्रन्थ को कोई प्रकाशक छापेगा, यह आशा मुझे नहीं है।’ मेरा यह उत्तर उस समय मेरे पिछले अनुभवों पर आधारित था। भाई जयदयाल जी ने भी केवल पढ़ना चाहा था और मैंने उन्हें तीन खण्डों की पाण्डुलिपि तभी भेज दी। कुछ पृष्ठ पढ़कर उन्होंने टाइप कराने की अनुमति माँगी और फिर तो उनका आग्रह बन गया कि यह छपे ही। ‘श्रीकृष्ण-सन्देश’ में यह चरित क्रमश: छपा, साथ ही पुस्तकाकार हुआ। जुलाई 1975 से यह क्रम प्रारम्भ हुआ था। जुलाई 1976 तक यह खण्ड ‘भगवान वासुदेव’ पुस्तक का रूप ले सका। उस समय कल्पना भी नहीं थी कि पाठक इसे इतने प्रेम से अपना लेंगे। अभी इस चरित का चौथा खण्ड ‘नन्दनन्दन’ प्रेस में ही गया है, पर यह खण्ड ‘वासुदेव (कृष्ण) भगवान वासुदेव’ पुनर्मुद्रण को देना पड़ रहा है। ‘नन्दनन्दन’ प्रकाशित होने से पर्याप्त पूर्व इस प्रथम खण्ड का द्वितीय संस्करण छपना इसका प्रमाण है कि पाठकों को ग्रन्थ प्रिय लगा। इस नवीन संस्करण में कोई परिर्वतन नहीं है, केवल यत्र-तत्र छपाई की भूलों को सुधारा मात्र गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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