भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अपनी बात
वे भगवान हैं। ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य– ये छ: भाग उनमें सम्यक पूर्ण हैं। इसलिए ‘भगवान वासुदेव’ से प्रारम्भ करके ‘श्रीद्वारिकाधीश’ के क्रम से ‘पार्थ-सारथि’ पर यह चरित पूरा हो जायेगा। श्रीकृष्ण नन्द नन्दन हैं। वे नित्य द्विभुज हैं। इस रूप में वे परात्पर परिपूर्णतम परमात्मा हैं। यह रूप भक्तों का सर्वस्व है। यह भक्त-हृदय-धन है। ध्यान-चिन्तन-आराधना से–भक्ति से प्राप्त होता है। भक्तों का कहना है- ‘वृन्दावन परित्यज्य पादमेकं न गच्छति ।’ सृष्टि की नियामकता, लोकनायकत्व आदि से इस रूप का कोई सम्बन्ध नहीं। यह तो प्रेम परवश प्रकट होता है, प्रेम परवश नाना लीलाएँ करता है, और- नायं सुखापो भगवान् देहिनां गोपिकासुत:। श्याम का सौहार्द तो इसी रूप में सुलभ हो सकता है। यह व्रजराज-तनय ही अपना है। अत: सबसे अन्त में– ‘नन्दनन्दन’। श्रीमद्भागवत तो मूलाधार है ही, महाभारत, हरिवंश, ब्रह्मवैवर्त-पुराण, गर्गसंहिता, पद्यपुराण, नारदीय-पुराण आदि में आये चरितों को भी समन्वित करते-जो समन्वित हो सकें- लेते चलने का विचार है। अपने लिए- शुद्ध रूप से अपने अन्तर में श्याम का रूप, गुण, लीला आवे, इसलिए इसे प्रारम्भ कर रहा हूँ। अत: कहना तो इतना ही है- श्रीव्रजराजकुमार, अपनों को अपनाइये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागवत 10-9-21
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