भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
आकाशवाणी और...
‘यह क्या करते हैं आप?’ वसुदेव जी कंस के रथ से कूदते ही चौंक पड़े थे। उन्होंने झपटकर कंस का तलवार उठाने वाला हाथ पकड़ा। ‘मै अपनी मृत्यु के इस मूल को अभी मिटाये देता हूँ।’ कंस क्रोध से काँप रहा था। उसका स्वर विकृत हो चुका था। उसके शरीर से स्वेद चलने चलने लगा था। ‘यह आपकी छोटी बहिन है! आपकी पुत्री के समान है और अभी-अभी आपने ही इसका विवाह किया है।’ वसुदेव जी पूरी शक्ति से दोनों हाथों से कंस का हाथ पकड़े हुए कह रहे थे- ‘आप यदुवंश के गौरव हैं। आपका शौर्य त्रिभुवन में प्रख्यात है। एक स्त्री के वध, वह भी अपनी कन्या जैसी बहिन का, सो-भी विवाह के अवसर पर आप कैसे करने जा रहे हैं?’ ‘यह मेरे मरण का हेतु है! कंस काँप रहा था। वसुदेव जी के हाथ से अपना हाथ छुड़ा लेने के प्रयत्न में था। यदि क्रोधाग्नि के कारण उसका शरीर स्तम्भित प्राय: न हो गया होता, उसके देह में इतना कम्पन होता तो उस दुर्दम का कर वसुदेव जी दो क्षण भी रोक नहीं सकते थे। जब भूखा व्याघ्र गाय की बछड़ी को दबा देता है, क्या अवस्था होती है उसकी? देवी देवकी के मुख से चीत्कार भी नहीं निकल सकी; किन्तु इस समय उनकी दशा देखने का किसी को अवकाश नहीं था। ‘युवराज! जन्म लेने के साथ ही देहधारी की मृत्यु निश्चित हो जाती है। मरना सबको एक न एक दिन है।’ वसुदेव जी ने पूरी शक्ति कंस का हाथ पकड़ने में लगा रखी थी; किन्तु बहुत नम्र स्वर में कह रहे थे- ‘ऐसा कर्म नहीं करना चाहिये कि मरने के पश्चात लोग निन्दा करें और अधोगति को-घोर नरक को जाना पड़े।’ ‘मरण! मरण! कैसा मरण? नहीं करना है मुझको!’ कंस चिल्लाया–मै अपनी मृत्यु के कारण को ध्वस्त कर दूंगा!’ ‘छोड़ दो! छोड़ दो इसे।’ सहसा पथ के दोनों ओर से नागरिकों की पुकार आने लगी। अनेक लोग आगे बढ़ आये। वह जनसंख्या शीघ्रता से बढ़ने लगी। ‘तुम्हें ऐसी कुबुद्धि कहाँ से आयी? कुछ यदु वृद्ध कंस के समीप आ गये। उन्होंने कहा- ‘तुम्हारा सुयश नष्ट करने को किसी शत्रु ने आकाश में अदृश्य रहकर यह बात कही है। देवता तुम्हारे मित्र तो नहीं हैं?’ कंस ने मुड़कर कहने वाले की ओर देखा। उसके चित्त में संशय का बीज पड़ गया; किन्तु मृत्यु की आशंका को वह सह नहीं सकता था। ‘देवता तुम्हारा जीवन चाहने वाले कब से हो गये?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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