भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
देवकी का प्रथम गर्भ
कंस ने सुनकर रानी से कहा था- ‘उसे कभी किसी पदार्थ के प्रति शैशव में भी उत्सुक होते मैंने नहीं देखा। अवश्य वह देव मन्दिर जाने में, व्रत-पूजा में उत्साह रखती थी और कोई ऋषि-मुनि आ जाय तो उसकी सेवा का कार्य करने में सबसे पहिले दौड़ती थी। कंस के अन्त:करण में पूर्व-वात्सल्य का अंश कहीं अभी शेष था। ‘वह अब भी नित्य स्नान-पूजन करती है।’ रानी ने कहा- ‘व्रत तो गर्भवती नारी का स्वभाव हो जाता है; क्योंकि आहार से उसे अरुचि हो जाती है। आग्रह करके उसे खिलाना पड़ता है, लेकिन देवकी में इन दिनों तन्द्रा का भाव अधिक रहता है।’ किसी को कैसा पता लग सकता था कि माता देवकी के गर्भ में आने वाले प्रथम षडगर्भ दैत्येन्द्र बलि के यहाँ पाताल में प्राय: सोते ही रहते हैं। वे वहाँ इस समय दीर्घ निद्रा में माने जाते हैं। योगमाया ने उनके जीव आकर्षित करना प्रारम्भ किया है देवकी के उदर में। यह प्रथम जो आया है, वह और आगे आने वाले उसके पांच अनुज सहज निद्रालु हैं। उनकी स्वभावगत निद्रा माता के प्रबल सत्वगुण को केवल आलस्य और तन्द्रा बना पाती है। वसुदेव के भवन में कोई उल्लास-उत्साह नहीं है।’ कंस को यह समाचार भी सब समाचारों के समान अनेक सूत्रों से मिल रहा था। ‘देवकी के सन्तान होने वाली है, यह देवकी को देखकर ही जाना जा सकता है। अन्त:पुर में तो आवश्यक प्रस्तुति भी आपकी सेविकाओं ने ही की है।’ जिसे रहना ही नही है,उसके आने का उत्सव क्या।’ वसुदेव जी की सभी रानियों - सेविकाओं के मुख पर गम्भीर वेदना की छाया जैसे जमकर बैठ गयी है। चाहे जो दीर्घ नि:श्वास लेकर कभी भी कह देती है- ‘ बेचारी दुखिया देवकी।’ ‘वसुदेव अतिशय गम्भीर हो गये हैं इन दिनों।’ कंस को यह समाचार भी मिलता रहता है- ‘वे बहुत कम बोलते हैं। किसी काम में जैसे उन्हें कोई रुचि ही नही रही है। स्नान-संध्या, पूजन यंत्र-चालित की भाँति करते हैं। भोजन के लिए कहने पर भी यन्त्र के समान कर लेते हैं। सदा कुछ चिन्तन सा करते रहते हैं।’ ‘उन पर दृष्टि रखे रहो! अत्यन्त सतर्क दृष्टि बनाये रहो।’ कंस को एक ही बात कहनी रहती है- ‘वे किस-किस से मिलते हैं, किससे एकान्त में मिलते हैं, यह देखो।’ ‘वे अपनी ओर से तो किसी से मिलते ही नहीं।’ कंस के विश्वस्त सेवकों ने सदा यही समाचार दिया- कोई मिलने आता भी है तो अत्यंत संक्षिप्त उत्तर उसकी बात का देकर उसे विदा कर देते हैं।’ ‘हम आपके साथ हैं। आपकी सन्तान की रक्षा के लिए हम प्राण तक देने को प्रस्तुत हैं।’ अनेक यादव–तरुण वसुदेव जी के पास आये। कंस के अनुचर उसे उनका नाम बतला देते हैं; किन्तु वसुदेव जी किसी को प्रोत्साहित नहीं करते वे कहते हैं- भगवान नारायण की इच्छा पूर्ण हो। सत्य स्वयं नारायण हैं। उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।’ ‘वे लोग और भी हैं।’ कंस कहता है- ‘वसुदेव के समीप तक केवल उनके प्रमुख आते हैं। मैं इन सबको देख लूँगा।’ ऐसे आने वाले क्रमश: घटते गये। वसुदेव जी ने प्रोत्साहन नहीं दिया, सहयोग उत्साह नहीं दिखाया तो सब स्वत: शान्त हो गये। वह समय भी आया जब देवकी को सन्तान होनी थी। वसुदेव जी की प्राय: सब पत्नियां प्रसूति-कक्ष में ही थीं। कंस की दोनों रानियां पिछली रात्रि से राजसदन नहीं गयी थीं। कंस की भेजी परिचारिकायें तो थीं ही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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