भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
धनुर्भंग
‘यह सौन्दर्य, यह शील, यह पराक्रम!’ नागरिक अंजलि बांधकर मस्तक झुकाते हैं। उनका रोम-रोम कहता है– ‘भगवान वासुदेव! भगवान वासुदेव! मथुरा के लोग अब उस स्नेह से समीप नहीं आ रहे हैं। देर भी बहुत हो गयी है। सूर्यास्त होने ही वाला है और आज द्वादशी है–अन्धकार हो जायेगा शीघ्र। वहाँ बाबा और गोप प्रतीक्षा करते होंगे। बालकों के पद शीघ्रतापूर्वक उठने लगे हैं। अब उन्हें कुछ देखना नहीं है। अपने पड़ाव पर पहुँचने की शीघ्रता है। श्रीव्रजराज और गोप बहुत चिन्तित थे। वह भयानक शब्द हुआ तब से और अधिक चिन्ता हो गयी थी। बालक मथुरा में गये हैं। राजा कंस क्रूर है। सब बालक ही हैं। पता नहीं सब क्या करें। मार्ग भी तो भूल सकते हैं वे सब। सन्ध्या होने को आ गयी। गोपों में से कई नगर में जाने को उठ पड़े थे, इतने में बालक आते दीख पड़े। दौड़ते ही आये सब के सब। दौड़ते-हंसते राम-श्याम आकर नन्दराय से लिपट गये। बाबा ने भुजाओं में भर लिया दोनों को। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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