श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
57. अश्वमेध-यज्ञ
व्रज से अश्व छूटा तो हस्तिनापुर पहुँचा। दुर्योधन बहुत क्रुद्ध हुआ स्वर्ण- पत्र पढ़कर। उसने अश्व को बँधवा दिया। लेकिन उसके सगे जमाता साम्ब ने ही यहाँ युद्ध का नेतृत्व किया। उनके साथ युद्ध में साम्ब के आघात से दुर्योधन मूर्च्छित हो गया। कर्ण, दुःशासन भी मूर्च्छित हो गये। इसी समय नारायणी सेना लिये श्रीकृष्णचन्द्र आ पहुँचे। अब भयभीत होकर दुर्योधन नगर में भाग गया। धृतराष्ट्र के सम्मुख पुत्र की सब कथा सुनाकर विदुर ने कहा- 'पहिले अकेले श्रीहलधर आये थे, जब हस्तिनापुर की सत्ता संदिग्ध हो गयी थी। अब उनके छोटे भाई सेना लेकर आ धमके हैं।' धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को झिड़की दी। वह द्रोण, भीष्म, कृपाचार्यादि कुलवृद्धों के साथ गया। अश्व लौटा दिया गया। बहुत-सी भेटें दी गयीं। श्रीकृष्णचन्द्र सबसे मिलकर यहाँ से द्वारिका चले गये। अश्व आगे घूमता द्वैतवन में पहुँचा तो उसे भीमसेन ने पकड़ लिया। वनवासी वेश, मलिन देह, बल्कल-वस्त्र- इस वेश में भीम को किसी ने नहीं पहिचाना किन्तु साधारण सैनिकों के साथ जो संघर्ष हुआ उसे देखते ही गद आगे बढ़े और प्रणाम करके बोले- 'मैं श्रीकृष्णानुज गद आपको प्रणाम करता हूँ। आपका शरीर तथा गदाचालन कौशल मेरे गदा-शिक्षक भीमसेन के समान है। आप अपना परिचय देने की कृपा करें।' 'मैं भीम ही हूँ।' हँसकर भीमसेन ने गद को हृदय से लगा लिया- 'अश्व तो तुम लोगों से मिलने के लिए मैंने पकड़ लिया।' पांडवों के वनवास के आठ वर्ष पूर्ण हो चुके थे। इसी प्रकार अश्व जब सारस्वत देश पहुँचा तो वहाँ कौन्तलपुर में केरल नरेश का पुत्र चन्द्रहास राजा था। इस मातृ-पितृहीन बालक को कुलिन्द ने पाला था। परम भगवद्भक्त चन्द्रहास ने अनिरुद्ध का दर्शन करने की इच्छा से ही अश्व पकड़ा और बड़ी भक्ति से उसने यादवी सेना का स्वागत सत्कार किया। अश्व सारस्वत देश से दूर जाकर अचानक मुड़ा और आकर अनिरुद्ध के सामने ही खड़ा हो गया। अनिरुद्ध ने उद्धव से पूछा- 'फाल्गुन मास पूरा हो रहा है। चैत्र तक हमें द्वारिका में होना चाहिए। अभी कितने नरेश शेष हैं जो अश्व-हरण कर सकते हैं? अश्व मेरे सम्मुख क्यों आया है?' 'अब अश्व-हरण में समर्थ कोई नरेश नहीं रहा।' उद्धव ने कहा- 'अश्व का संकेत है कि अब उसे द्वारिका लौटना है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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